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निबन्ध-निचय
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पिण्डवाड़ा से विहार कर जब हम रोहिड़ा प्राये तो पण्डितजी यहीं थे । खबर पहुंचते ही प्राप उपाश्रय में पधारे और बराबर तीन घण्टों तक पुरातत्त्वविषयक ज्ञानगोष्ठी करते रहे । दर्मियान उक्त जैन लेख के बारे में पूछने पर ज्ञात हुआ कि "वह लेख आपके नोट में भी पूरा नहीं है, घिस जाने के कारण बिचला भाग ठीक नहीं पढ़ा गया ।" हमें बड़ी निराशा हुई । अब लेख के सम्पूर्ण पढ़ जाने की कोई आशा नहीं रही और उन मूर्तियों तथा लेख के सम्बन्ध में जो कुछ लिखने योग्य है उसे लिख देने का निश्चय कर लिया ।
२. मूर्तियों का मूल प्राप्ति-स्थान :
प्रस्तुत मूर्तियाँ यद्यपि इस समय पिण्डवाड़ा के जैन मन्दिर में स्थापित हैं, परन्तु इनका मूल प्राप्तिस्थान जहाँ से कि ये लाई गई हैं वसन्तगढ़ है ।
'वसन्तगढ़' पिण्डवाड़ा से अग्निकोण में करीब ३ कोस की दूरी पर एक पहाड़ी किला है, जो इसी नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ के भील मेदजन आदि पहाड़ी लोग इसे "चवलियो रो गढ़" इस नाम से अधिक पहिचानते
सोलहवीं सदी के शिलालेखों में इस स्थान का नाम " वसन्तपुर" लिखा है, तब कोई कोई पुरातत्त्वज्ञ इसका प्राचीन नाम " वसिष्ठपुर" बताते हैं। कुछ भी हो, लेकिन " वसन्तगढ़" म रवाड़ के प्रतिप्राचीन स्थानों में से एक है । यह बात वहाँ के क्षेमार्या देवी के मन्दिर के विक्रम की सातवीं सदी के एक शिलालेख से ही सिद्ध है ।
वसन्तगढ़ में इस समय भी तीन-चार अर्धध्वस्त दशा में जैन मन्दिर दृष्टिगोचर होते हैं । दो-तीन जैनेतर देवताओं के मन्दिर भी वहां खण्डित
१. बाद में हमने पण्डितजी से उस लेख की नकल भी अजमेर से मंगवाई, परन्तु आपके कहने मुजब ही उसके बिनसे दो पद्य ग्रधिकांश में प्रक्षरों के घिस जाने से पढ़े नहीं गये थे, फिर भी हमें पण्डितजी की नकल से दो एक शब्द नये अवश्य मिले और उनके आधार से उन पद्यों का भाव समझने में कुछ सुगमता हो गई ।
२. वसन्तगढ़ से करीब डेढ़ मील के फासले पर एक "चवली" नाम का गांव है, केर "तियो से गढ़" कहते हैं ।
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