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निबन्ध-निचय
का अपहरण करने वाले म्लेच्छ "बोहिय" कहलाते हैं । हमारा अनुमान है कि "बोधिक" अथवा "बोहिय" कहलाने वाले लोग "बोहीमिया" के रहने वाले विदेशी थे; वे यूनानियों के भारत पर के श्राक्रमण के समय भारत की पश्चिम सरहद पर इधर उधर पहाड़ी प्रदेशों में फैल गए थे। मौर्य चन्द्रगुप्त के शासनकाल में भारत के पश्चिम तथा उत्तर प्रदेशों में घुस कर ये मनुष्यों को पकड़ पकड़ कर ले जाते और विदेशों में पहुंचा कर गुलाम खरीददारों के हाथ बेच दिया करते थे । उपर्युक्त हमारा अनुमान ठीक हो तो इसका अर्थ यही हो सकता है कि मथुरा का स्तूप मौर्य - राज्यकालीन होना चाहिए ।
मथुरा का देवनिर्मित स्तूप आज भी मथुरा के "कंकाली टीला" के रूप में भग्न अवस्था में खड़ा है। इसमें से मिली हुई कुषाण कालीन जैन- मूर्तियां, प्रयाग-पट, जैन साधुओं की मूर्तियां आदि ऐतिहासिक साधन आज भी मथुरा तथा लखनऊ के सरकारी संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन पर राजा कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव के राज्यकाल के लेख भी उत्कीर्ण हैं, इससे ज्ञात होता है कि यह तीर्थ विक्रम की दूसरी शताब्दी तक उन्नत दशा मैं था । उत्तर भारत में विदेशियों के आक्रमणों से खास कर श्वेत हूणों के समय में जैन श्रमण तथा जैन गृहस्थ सामूहिक रूप से दक्षिण भारत की तरफ राजस्थान, मेवाड़, मालवा, आदि में चले आये और उत्तर भारत के अनेक जैन तीर्थ रक्षण के प्रभाव से वीरान हो गये थे, जिनमें से मथुरा की देव-निर्मित स्तूप भी एक था ।
(१०) सम्मेद शिखर :
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सूत्रोक्त जैन तीर्थों में सम्मेत शिखर ( पारसनाथ - हिल ) का नाम भी परिगणित है । आवश्यक निर्मुक्तिकार कहते हैं - ऋषभदेव वासुपूज्य १२ नेमिनाथ २२ और वर्धमान २४ ( महावीर ) इन चार तीर्थङ्करों को छोड़ शेष इस अवसर्पिणी समस के बीस तीर्थंकर सम्मेत शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुए थे, इस दशा में सम्मेन शिखर को तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि होने के कारण तीर्थं कहते हैं ।
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