________________
निबन्ध-निचय
में यह स्तूप जैनों का एक महिमास्पद तीर्थ बना हुआ था । वर्ष के अमुक समय में यहां स्नान-महोत्सव होता और उस प्रसंग पर भारतवर्ष के कोने कोने से आकर तीर्थ-यात्रिक यहां एकत्रित होते थे, ऐसा प्राचीन जैन साहित्य के उल्लेखों से सिद्ध होता है । इस बात के समर्थन में निशीथ-भाष्य की एक गाथा तथा उसकी चूरिण का उद्धरण नीचे देते हैं
"थूभमह सड्ढि समणि,-बोहियहरणं च निवसुयातावे ।
मग्गेण य अकूदे, कयंमि युद्धेरण मोएति ॥"
अर्थात्-'मथुरा के स्तूप महोत्सव पर जैन श्राविकाएँ तथा जैन साध्वियों जा रही थीं, मार्ग में से बोधिक लोग उन्हें घेर कर अपने साथ ले चले, आगे जाते मार्ग के निकट आतापना करते हुए एक राजपुत्र प्रवजित जैन-मुनि को देखा, उन्हें देखते ही यात्रार्थिनियों ने आक्रन्द (शोर) किया, जिसे सुनकर मुनि उनकी तरफ आये और बौधिकों से युद्ध कर श्राविकाओं तथा साध्वियों को उनके पजे से छुड़ाया।'
उक्त गाथा की विशेष चूणि नीचे लिखे अनुसार है
"महुराए नयरीए थूभो देवनिम्मित्रो, तस्स महिमानिमित्तं सड्ढीतो समणीहि समं निग्गयातो, रायपुत्तो तत्थ अदूरे आयावंतो चिट्ठई । ता सड्डीसमणीतो बोहियेहिं गहियातो तेणं तेणं अणियातो ता ताहिं तं साहुं द~णं अक्दो को, ततो रायपुत्तेण साहुणा युद्धं दाऊरण मोइयातो । बोधिकाअनार्य म्लेच्छाः ।' (नि० वि० चू० २६८२)
अर्थात्-चूणि का भावार्थ गाथा के नीचे दिए हुए अर्थ में आ चुका है, इसलिये चूणि का अर्थ न लिख कर चूर्णिकार के अन्तिम शब्द "बोधिक" पर ही थोड़ा ऊहापोह करेंगे ।
जैन-सूत्रों के भाष्यादि में "बोहिय" यह शब्द बार-बार आया करता है, प्राचीन संस्कृत टीकाकार "बोहिय" शब्द बनाकर कहते हैं-"बोधिक" पश्चिम दिशा के म्लेच्छों को कहते हैं। प्राकृत टीकाकार कहते हैं- "मनुष्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org