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________________ १८८ : निबन्ध-निचय चातुर्मास्य पूरा होने आया है, हम यहाँ से चातुर्मास्य की समाप्ति होते हो विहार करेंगे। तुम जिनदेव की पूजा-भक्ति तथा जैन धर्म की उन्नति में सहयोग देती रहना। देवी ने तपस्वियों को वहीं ठहरने की प्रार्थना की, परन्तु साधुओं का एक स्थान पर रहना, प्राचारविरुद्ध बताकर उसकी प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया। कुबेरा ने कहा-यदि आपका यही निश्चय है; तो मेरे योग्य धर्म-कार्य का आदेश फरमाइये, क्योंकि देवदर्शन "अमोघ" होता है। साधुओं ने कहा-“मथुरा के जैन संघ के साथ हमें मेरु पर्वत पर ले जाइए", देवी ने कहा-आप दो को मैं वहां ले जा सकती हूँ। मथुरा का संघ साथ में होगा तो मुझे भय है कि मिथ्या दृष्टि देव मेरे गमन में विघ्न करेंगे। साधु बोले-यदि संघ को वहां ले जाने की तेरी शक्ति नहीं है, तो हम दोनों का वहां जाना उचित नहीं है। हम शास्त्र-बल से ही मेरु स्थित जिनचैत्यों का दर्शन वन्दन कर लेंगे। तपस्वियों के इस कथन को सुनकर, लज्जित सी हो कुबेरा बोली-भगवन् ! यदि ऐसा है तो मैं स्वयं जिनप्रतिमाओं से शोभित मेरु पर्वत का आकार यहां बना देती हूँ। वहां पर संघ के साथ आप देववन्दन करलें । साधुओं ने देवी की बात को स्वीकार किया, तब देवी ने सुवर्णमय नाना रत्नशोभित अनेक देव परिवारित, तोरण-ध्वज-मालाओं से अलंकृत, जिसका शिखर छत्रत्रय से सुशोभित हो ऐसा रात भर में स्तूप निर्माण किया, जो मेरु पर्वत की तरह तीन मेखलाओं से सुशोभित था। प्रत्येक मेखला में प्रति दिक् सम्मुख पञ्चवर्ण रत्नमय प्रतिमाएँ सुशोभित थीं। मूल नायक के स्थान पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का बिंब प्रतिष्ठित था। प्रभात होते ही लोग स्तूप के पास एकत्र हुए और आपस में विवाद करने लगे। कोई कहते-वासुकि नाग के लांछन वाला स्वयंम्भू देव है, तब दूसरे कहते थे-"शेषशायी भगवान् नारायण है।" इसी प्रकार कोई ब्रह्मा, कोई धरणेन्द्र (नागराज), कोई सूर्य तो कोई चन्द्रमा कहकर अपनी जानकारी बता रहे थे। बौद्ध कहते थे-यह स्तूप नहीं, किन्तु 'बुद्धाण्डक' है। इस विवाद को सुनकर मध्यस्थ पुरुष कहते थे-यह दिव्य शक्ति से बना है और दिव्य शक्ति से ही इसका निर्णय होगा। तुम आपस में क्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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