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निबन्ध-निचय
दिल निराशा का अनुभव करने लगे, सूर्यदेव ने उदयाचल के शिखर से अपने किरण फेंककर सबको निश्चय करा दिया कि स्तूप के शिखर पर श्वेत-ध्वज फरक रहा है। जैन धर्मियों के मुखों से एक साथ "जैनं जयति शासनम् " की ध्वनि निकल पड़ी और मथुरा के देवनिर्मित स्तूप का स्वामित्व जैन संघ के हाथों में सौंप दिया गया ।
मथुरास्थित देवनिर्मित स्तूप की उत्पत्ति का उक्त इतिहास हमने जैन सूत्रों के भाष्यों, चूरियों और टीकाओं के भिन्न-भिन्न वर्णनों को व्यवस्थित करके लिखा है । आचार्य जिनप्रभ सूरि कृत मथुरा - कल्प में पौराणिक ढंग से इस स्तूप का विशेष वर्णन दिया है, जिसका संक्षिप्त सार पाठकगरण के अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है
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'श्रीसुपार्श्वनाथ जिनके तीर्थवर्ती धर्मघोष और धर्मरुचि नामक दो तपस्वी मुनि एक समय बिहार करते हुए मथुरा पहुंचे । उस समय मथुरा की लम्बाई बारह योजन तथा विस्तार नत्र योजन परिमित था । उसके चारों ओर दुर्गं बना हुआ था और पास में दुर्ग को नहलाती हुई यमुना नदी बह रही थी । मथुरा के भीतर तथा बाहर अनेक कूप बावड़ियाँ बनी हुई थीं । नगरी गृहपंक्तियों, हाट-बाजारों और देव मन्दिरों से सुशोभित थी । इसका बाह्य भूमिभाग अनेक वनों, उद्यानों से घिरा हुआ था । तपस्वी धर्मघोष, धर्मरुचि मुनियुगल ने मथुरा के "भूतरमरण" नामक उद्यान में चातुर्मासिक तप के साथ वर्षा-चातुर्मास्य की स्थिरता की । मुनियों के तप ध्यान शान्ति आदि गुणों से प्राकर्षित होकर उपवन की अधिष्ठात्री "कुबेरा" नामक देवी उनके पास रात्रि के समय जाकर कहने लगी, मैं आपके गुणों से बहुत ही संतुष्ट हूँ, मुझसे वरदान मांगिये । मुनियों ने कहा- हम निःसङ्ग श्रमरण हैं । हमें किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं, यह कहकर उन्होंने "कुबेरा" को धर्म का उपदेश देकर जैन धर्म की श्रद्धा कराई ।
चातुर्मास्य की समाप्ति के लगभग कार्तिक सुदि अष्टमी को तपस्वियों ने अपने निवासस्थान की स्वामिनी जानकर कुबेरा को कहा -श्राविके !
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