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निबन्ध-निचय
श्रावश्यक-निर्युक्ति, भाष्य, चूरिण श्रादि से यह प्रमाणित होता है कि भगवान् ऋषभदेव उत्तर-पूर्व और पश्चिम भारत के देशों में ही विचरे थे । दक्षिण भारत में अथवा सौराष्ट्र भूमि में वे कभी नहीं पधारे । जैन शास्त्रोक्त भारतवर्ष के नकशे के अनुसार आज का सौराष्ट्र देश ऋषभदेव के समय जलमग्न होगा, अथवा तो एक अन्तरीप होगा । इसके विपरीत नेमिनाथ के समय में यह सौराष्ट्र भूमि समुद्र के बीच होते हुए भी मनुष्यों के बसने योग्य हो चुकी थी । इसी कारण से जरासंध के आतंक से बचने के लिए यादवों ने इस प्रदेश का आश्रय लिया था, तथा इन्द्र के आदेश से उनके लिए कुबेर ने वहां द्वारिका नगरी का निवेश किया था । भगवान् नेमिनाथ ने इसी द्वारिका के बाहर " रैवतक" पर्वत के समीप प्रव्रज्या ली थी और बहुधा इसी प्रदेश में विचरे थे । इस वास्तविक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए हम सौराष्ट्र प्रदेश, उज्जयन्त ( गिरनार ) और शत्रुञ्जय पर्वत भगवान् नेमिनाथ के विहारक्षेत्र मानेंगे तो वास्तविकता के अधिक समीप रहेंगे ।
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( 8 ) मथुरा का देव-निर्मित स्तुप :
मथुरा के "देव-निर्मित स्तूप" का यद्यपि मूल आगमों में उल्लेख नहीं मिलता तथापि छेद सूत्रों तथा अन्य सूत्रों के भाष्य, चूरिंग आदि में इसके उल्लेख मिलते हैं । इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि -
" मथुरा नगरी के बाहर वन में एक क्षपक ( तपस्वी जैन साधु ) तपस्या कर रहा था । उसकी तपस्या और संतोषवृत्ति से वहां को वनदेवता तपस्वी साधु की तरफ भक्ति - विनम्र हो गई थी । प्रतिदिन वह साधु को वन्दना करती और कहती – “मेरे योग्य कार्य सेवा फरमाना'', क्षपक कहता- "मुझे तुम जैसी अविरत देवी से कुछ कार्य नहीं ।" देवी जब भी क्षपक को कार्य सेवा के लिए उक्त वाक्य दोहराती तो क्षपक भी
देवी के मन में
कहा करते हैं तो इच्छुक बनें ।
के
अपनी तरफ से वही उत्तर दिया करता था । एक समय -" तपस्वी बार-बार मुझे कोई कार्य न होने का अब ऐसा कोई उपाय करूं ताकि ये मेरी सहायता पाने
आया---
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