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________________ निबन्ध-निचय : १८३ इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमें यही कहना पड़ता है कि "शत्रुञ्जयमहात्म्य' अर्वाचीन ग्रन्थ है और इसमें लिखी हुई अनेक बातें अनागमिक हैं। दृष्टान्त के रूप में हम एक ही बात का उल्लेख करेंगे। माहात्म्य ग्रन्थों में लिखा है कि "शत्रुजय पर्वत का विस्तार प्रथम आरे में ८०, द्वितीय आरे में ७०, तृतीय पारे में ६० चतुर्थ पारे में ५०, पंचम पारे में १२ योजन का होगा, तब षष्ठ पारे में केवल ७ हाथ का ही रहेगा।" जैन आगमों का ही नहीं किन्तु भूगर्भवेत्ताओं का भी यह सिद्धान्त है कि पर्वत भूमि का ही एक भाग है । भूमि की तरह पर्वत भी धीरे धीरे ऊपर उठता जाता है। लाखों और करोड़ों वर्षों के बाद वह अपने प्रारम्भिक रूप से बड़ा हो जाता है। तब हमारे इन शत्रुजय माहात्म्यकारों की गंगा उल्टी बहती मालूम होती है, इसलिए इस पर्वत को प्रारम्भ में अस्सी योजन का होकर अन्त में बहुत छोटा होने का भविष्य कथन करते हैं। इसी से इन कल्पों की कल्पितता बताने के लिए लिखना बेकार होगा, वास्तव में पीतल अपने स्वरूप से ही पीतल होता है, यूक्ति-प्रयोगों से वह सोना सिद्ध नहीं हो सकता। हमारे प्राचीन साहित्य-सूत्रादि में इसका विशेष विवरण भी नहीं मिलता। ज्ञाताधर्मकथांग के सोलहवें अध्ययन में पांच पाण्डवों के शत्रुजय पर्वत पर अनशन कर निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्तकृद्दशांग-सूत्र में भगवान् नेमिनाथजी के अनेक साधुओं के शत्रुञ्जय पर्वत पर तपस्या द्वारा मुक्ति पाने का वर्णन मिलता है। इससे इतना तो सिद्ध है कि शत्रुञ्जय पर्वत हजारों वर्षों से जैनों का सिद्ध क्षेत्र बना हुआ है। यह स्थान भगवान् ऋषभदेव का विहारस्थल न मानकर नेमिनाथ का तथा उनके श्रमणों का विहारस्थल मानना विशेष उपयुक्त होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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