________________
१८२ :
निबन्ध-निचय
पर्वत भगवान् ऋषभदेव का मुख्य विहारक्षेत्र और भरत चक्रवर्ती का सुवर्णमय चैत्यनिर्माण का स्थान माना गया है ।
कुछ संस्कृत और प्राकृत कल्पकारों ने भी शत्रुञ्जय के सम्बन्ध में दिल खोलकर गुणगान किया है ।
. शत्रुञ्जय तीर्थ के गुणगान करने वालों में मुख्यतया "श्री धनेश्वरसूरि" तथा “श्री जिनप्रभसूरि" का नाम लिया जा सकता है। धनेश्वरसूरिजी ने तो माहात्म्य के उपक्रम में ही अपना परिचय दे डाला है। वे कहते हैं-'बलभी नगरी के राजा "शीलादित्य' की प्रार्थना से विक्रम संवत् ४७७ (चार सौ सतहत्तर) में यह शत्रुञ्जयमाहात्म्य मैंने बनाया है। वे स्वयं अपने आपको 'राजगच्छ' का मण्डन बताते हैं। शत्रुञ्जय तीर्थ के संस्कृत-कल्प लेखक श्री जिनप्रभसूरिजी विक्रम की चौहदवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् थे; इसमें तो कोई शंका ही नहीं। इन्होंने विक्रम सं० १३८५ में यह कल्प लिखा है। इस कल्प की अोर शत्रुञ्जयमाहात्म्य की मौलिक बातें एक दूसरे का आदान-प्रदान रूप मालूम होती हैं, परन्तु धनेश्वरसूरिजी का अस्तित्व पंचमी शताब्दी में होने का उनको यह कृति ही प्रतिवाद करती है । इस माहात्म्य में शीलादित्य का तो क्या चौदहवीं सदी के जीर्णोद्धारक समरसिंह तक का नाम लिखा मिलता है। इस स्थिति में इस ग्रन्थ को शीलादित्यकालीन धनेश्वरसूरिजी कृत मानना युक्ति-संगत नहीं है। हमने पाटन गुजरात के एक प्राचीन ग्रन्थ-भण्डागार में एक ताड़पत्रों पर लिखी हुई प्राचीन ग्रन्थसूची देखी थी जिसमें विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक में बने हुए सैंकड़ों जैन जै नेतर ग्रन्थों के नाम मिलते हैं परन्तु उसमें 'शत्रुजय माहात्म्य' का तथा 'शत्रुञ्जय कल्प' का नामोल्लेख नहीं है। बृहट्टिप्परिणका नामक भारतीय जैन ग्रन्थों को एक बड़ी सूची है जो सोलहवीं शताब्दी में किसी विद्वान् जैन श्रमरण ने लिखी है। उसमें “शत्रुञ्जय माहात्म्य" का नाम अवश्य मिलता है परन्तु टिप्पणी-लेखक ने इस ग्रन्थ के नाम के आगे "कूट ग्रन्थ' ऐसा अपना अभिप्राय भी व्यक्त कर दिया है। अष्टम शताब्दी से लगाकर चौदहवीं शताब्दी तक के किसी भी ग्रन्थ में :'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' ग्रन्थ अथवा इससे कर्ता धनेश्वरसूरि का नामोल्लेख नहीं मिलता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org