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निबन्ध-निचय
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फेंका। आग की चिनगारियां उगलते हुए वज्र को देखकर चमर आया उसी रास्ते से भागा । शक्र ने सोचा, - " चमरेन्द्र यहां तक किसी भी महर्षि तपस्वी की शरण लिये विना नहीं आ सकता । देखें ! यह किसकी शरण लेकर आया है ?" इन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना कि चमर महावीर का शरणागत बनकर आया है और वहीं जा रहा है । वह तुरन्त वज्र को पकड़ने दौड़ा । चमरेन्द्र अपना शरीर सूक्ष्म बनाकर भगवान् महावीर के चरणों के बीच घुसा । वज्रप्रहार उस पर होने के पहले ही इन्द्र ने वज्र को पकड़ लिया। इस घटना से सुंसुमारपुर और उसके आसपास के गांवों में सनसनी फैल गई। लोगों के झुंड के झुंड घटना स्थल पर ये और घटना की वस्तुस्थिति को जानकर में झुक पड़े । भगवान् महावीर तो वहाँ से के हृदय में उनके शरणागत- रक्षत्व की छाप सदा के लिए रह गई और घटनास्थल पर एक स्मारक बनवाकर शरणागत वत्सल भगवान् महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित की। उस प्रदेश के श्रद्धालु लोग उसे बड़ी श्रद्धा से पूजते तथा कार्यार्थी यात्रीगण, सार्थवाह आदि अपनी यात्रा की निर्विघ्नता के लिए भगवान् की शरण लेकर आगे बढ़ते थे । यही भगवान् महावीर का स्मारक मंदिर आगे जाकर जैनों का "चमरोत्पात"" नामक तीर्थ बन गया जिसका आचारांग नियुक्ति में स्मरण - वन्दन किया है ।
भगवान् महावीर के चरणों विहार कर गये परन्तु लोगों
चमरोत्पात तीर्थ ग्राज हमारे विच्छिन्न ( भुले हुए ) तीर्थों में से एक है । यह स्थान आधुनिक मिर्जापुर जिले के एक पहाड़ी प्रदेश में था, ऐसा हमारा अनुमान है ।
(८) शत्रुञ्जय पर्वत :
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"शत्रुञ्जय" आज हमारा सर्वोतम तीर्थ माना जाता है । इसका माहात्म्य गाने में शत्रुञ्जय माहात्म्यकार ने कुछ उठा
नहीं रखा । यह
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(१) चमरेन्द्र के शक्रेन्द्र पर चढ़ाई करने के विषय पर भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन मिलता है, परन्तु उसमें चमरोत्पात के स्थल पर स्मारक बनने और तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध होने की सूचना नहीं है। मालूम होता है, भगवान् महावीर के प्रवचन का निर्माण होने के समय तक वह स्थान जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध नहीं हम्रा था ।
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