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निबन्ध-निचय
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उसने मथुरा के निकट एक बड़े विशाल चौक में रात भर में एक बड़ा स्तूप खड़ा कर दिया। दूसरे दिन उस स्तूप को जैन तथा बौद्ध धर्म के अनुयायी अपना मानकर उसका कब्जा करने के लिए तत्पर हुए। जैन स्तूप को अपना बताते थे, तब बौद्ध अपना । स्तूप में “लेख'' अथवा किसी सम्प्रदाय की "देव-मूर्ति" न होने के कारण, उसने जैन-बौद्धों के बीच झगड़ा खड़ा कर दिया। परिणामस्वरूप दोनों सम्प्रदायों के नेता न्याय के लिए राजा के पास पहुंचे और स्तूप का कब्जा दिलाने की प्रार्थना की। राजा तथा उसका न्याय विभाग स्तूप जैनों का है अथवा बौद्धों का, इसका कोई निर्णय नहीं दे सके।
जैन संघ ने अपने स्थान में मिलकर विचार किया कि यह स्तूप दिव्य शक्ति से बना है और देवसाहाय्य से ही किसी संप्रदाय का कायम हो सकेगा। संघ में देव सहायता किस प्रकार प्राप्त की जाय इस बात पर विचार करते समय जानने वालों ने कहा--वन में अमूक क्षपक के पास वन-देवता पाया करता है। अतः क्षपक द्वारा उस देवता से स्तुप-प्राप्ति का उपाय पूछना चाहिए। संघ में सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि दो साधु क्षपक मुनि के पास भेजकर उनके द्वारा बन देवता की इस विषय में सहायता मांगी जाय ।
प्रस्ताव के अनुसार श्रमण-युगल क्षपक मुनि के पास गया और क्षपकजी को संघ के प्रस्ताव से वाकिफ किया। क्षपक ने भी यथाशक्ति संघ का कार्य सम्पन्न करने का आश्वासन देकर आए हुए मुनियों को 'वापस विदा किया।
नित्य नियमानुसार वनदेवता क्षपक के पास आये और वन्दनपूर्वक कार्य सेवा सम्बन्धी नित्य की प्रार्थना दोहराई। क्षपक ने कहा-एक कार्य के लिए तुम्हारी सलाह आवश्यक है। देवता ने कहा-कहिये वह कार्य क्या है ? क्षपकजी बोले-महीनों से मथुरा के स्तूप के सम्बन्ध में 'जैनबौद्धों के बीच झगड़ा चल रहा है। राजा, न्यायाधिकरण भी परेशान हो रहे हैं. पर इसका निर्णय नहीं होता। मैं चाहता हूँ तुम कोई ऐसा उपाय
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