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निबन्ध-निचय
: १७५
अणुत्तालगंभीरमहुराए भारतीए भणियं तेणायरियेणं जहा इच्छायारेणं न कष्पइ तित्थयत्तं गंतुं सुविहियाणं; ता जाव णं वोलेइ जत्तं ताव णं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदावेहामि । अन्नं च जत्ताए गएहिं असंजमे पडिज्जइ; एएणं कारणेणं तित्थयत्ता पडिसेहिज्जइ ।"
अर्थात्-भगवान् महावीर कहते हैं-हे गोतम ! अन्य समय वे साधु उस आचार्य को कहते हैं-हे भगवन् ! यदि आप आज्ञा करें तो हम तीर्थयात्रा करने चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन करने धर्मचक्र जाकर आ जाएँ। तब हे गौतम ! उस प्राचार्य ने दृढ़ता से सोचकर गंभीर वाणी से कहा'इच्छाकार से सुविहित साधुओं को तीर्थयात्रा को जाना नहीं कल्पता। इसलिए जब यात्रा बीत जायगी तब मैं तुम्हें चन्द्रप्रभ का वन्दन करा दूंगा। दूसरा कारण यह भी है कि तीर्थ-यात्राओं के प्रसंगों पर साधूनों को तीर्थों पर जाने से असंयम मार्ग में पड़ना पड़ता है। इसी कारण साधुओं के लिए यात्रा निषिद्ध की गई है।'
महानिशीथ में ही नहीं, अन्य सूत्रों में भी जैन श्रमणों को तीर्थयात्रा के लिए भ्रमण करना वर्जित किया है। निशीथ सूत्र की चूरिण में लिखा है- "उत्तराबहे धम्मचक्कं, मधुराए देवरिणम्मिो थूभो। कोसलाए वा जियंतपडिमा तित्थकराण वा जम्मभूमीग्रो एवमादिकारणेहिं गच्छन्तो णिक्कारणिनो” (२४३-२ नि० चू०) अर्थात्- 'उत्तरापथ में धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप, अयोध्या में जीवंत स्वामी प्रतिमा, अथवा तीर्थङ्करों की जन्मभूमियाँ' इत्यादि कारणों से देश भ्रमण करने वाले साधु का विहार निष्कारणिक कहलाता है। उक्त महानिशीथ के प्रमाण से मेले के प्रसंग पर तीर्थ पर साधु के लिए जाना वर्जिल किया ही है; परन्तु निशीथ आदि आगमों के प्रमाणों से केवल तीर्थदर्शनार्थ भ्रमण करना भी जैन श्रमण के लिए निषिद्ध बताया है। जैन श्रमण के लिए सकारण देश-भ्रमण करना आगम-विहित है। तीर्थ-वन्दन के नाम से भड़कने वाले तथा केवल तीर्थ वन्दना के लिए भटकने वाले हमारे वर्तमानकालीन जैन श्रमणों को इन शास्त्रीय वर्णनों से बोध लेना चाहिए ।
(१) यहां 'यात्रा' शब्द तीर्थ पर होने वाले मेले के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
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