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निवन्ध-निचय
तक्षशिला का धर्मचक्र बहुत काल पहिले से ही जैनों के हाथ से चला गया था। इसके दो कारण थे-१. विक्रम की दूसरी तथा तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था। यही नहीं, तक्षशिला विश्वविद्यालय में हजारों बौद्ध भिक्षु तथा उनके अनुयायी छात्रगण विद्याध्ययन करते थे। इस कारण तक्षशिला के तथा पुरुषपुर (पेशावर) के प्रदेशों में हजारों की संख्या में बौद्ध-उपदेशक घूम रहे थे। इसके अतिरिक्त २. “शशेनियन' लोगों के भारत पर होने वाले आक्रमण की जैन संघ को आक्रमण से पहले ही सूचना मिल चुकी थी कि "अाज से तीसरे वर्ष में तक्षशिला का भंग होने वाला है", इससे जैन संघ धीरे धीरे तक्षशिला से दक्षिण की तरफ पहुंच कर जल-मार्ग से “कच्छ” तथा “सौराष्ट्र" तक चला गया। जाने वाले अपनी धन-संपत्ति को ही नहीं, अपनी पूज्य देव-मूर्तियों तक को वहां से हटा ले गये थे। इस दशा में अरक्षित जैन स्मारकों तथा मन्दिरों पर बौद्ध धर्मियों ने अपना अधिकार कर लिया था। तक्षशिला का धर्मचक्र जो चन्द्रप्रभ का तीर्थ माना जाता था, उसको भी बौद्धों ने अपना लिया और उसे "बोधिसत्त्व चन्द्रप्रभ" का प्राचीन स्मारक होना उद्घोषित किया । बौद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो कि विक्रम की षष्टी शताब्दी में भारत में आया था, अपने "भारतयात्राविवरण" में लिखता है
“यहां पूर्वकाल में बोधिसत्त्व 'चन्द्रप्रभ" ने अपना मांस प्रदान किया था, जिसके उपलक्ष्य में मौर्य सम्राट अशोक ने उसका यह स्मारक बनवाया है।
उक्त चीनी यात्री के उल्लेख से यह तो निश्चित हो जाता है कि "धर्मचक्र" विक्रमीय छठी शती के पहले ही जैनों के हाथ से चला गया था। निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह कहना अनुचित न होगा कि "शशेनियन लोग जो ईसा की तीसरी शताब्दी में आक्रामक बनकर क्षशिला के मार्ग से भारत में आए। लगभग उसी काल में "धर्मचक्र" बौद्धों का स्मारक बन गया होगा।
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