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________________ निबन्ध-निचय छउमत्थपरिपात्रो, वाससहस्सं तो पुरिमताले । गग्गोहस्स य हेट्ठा, उप्पण्णं केवलं नाणं ।।३३९।। फग्गुणबहुले एक्कारसीइ, अह अट्ठमण भत्तेणं । उप्पण्णंमि अणंते, महन्वया पंच पण्णवए ।।३४०॥" अर्थात्-बहली (बल्ख-बक्त्रिया) अडंबइल्ला (अटक प्रदेश) यवम (यूनान) देश और स्वर्णभूमि इन देशों में भगवान् ऋषभ ने तपस्वी जीवन में भ्रमण किया। बल्ख, यवन, पल्हव देशवासी भगवान् के अनुशासन से क्रौर्य का त्याग कर भद्र परिणामी बने । तीर्थङ्करों में आदि तीर्थङ्कर ऋषभ मुनि सर्वत्र निरुपसर्गता से विचरे । अादि जिन की अग्र-विहार भूमि अष्टापद तीर्थ बन रहा, अर्थात्-पूर्व पश्चिम भारत के देशों में घूमकर उत्तर भारत में आते, तब बहुधा :'अष्टापद पर्वत' पर ही ठहरते । भगवान् ऋषभ जिन का छद्मस्थ पर्याय (तपस्वी जीवन) एक हजार वर्ष तक बना रहा। बाद में आपको पुरिमताल नगर के बाहर वटवृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए केवल-ज्ञान प्रकट हुआ। उस समय आपने निर्जल तीन उपवास किये थे । फाल्गुन वदि एकादशी का दिन था, इन संजोगों में अनन्त केवल-ज्ञान प्रकट हुआ और आपने श्रमणधर्म के पंच महाव्रतों का उपदेश किया। धर्मचक्र को बाहुबली ने ऋषभदेव के स्मारक के रूप में बनवाया था, परन्तु कालान्तर में उस स्थान पर जिनचैत्य बनकर जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुई और इस स्मारक ने एक महातीर्थ का रूप धारण किया। प्रतिष्ठित जिनचैत्यों में "चन्द्रप्रभ" नामक पाठवें तीर्थङ्कर का चैत्य प्रतिमा प्रधान था। इस कारण से इस तीर्थ के साथ "चन्द्रप्रभ" का नाम जोड़ दिया गया और दीर्घकाल तक वह इसी नाम से प्रसिद्ध रहा। महानिशीथ नामक जैन सूत्र में इसका वृत्तान्त मिलता है, जिसमें से थोड़ा सा अवतरण पहां देना योग्य समझते हैं "अहन्नया गोयमा ! ते साहुणो तं पायरियं भगति-जहा णं जइ भयवं तुमं माणवेहि, ताणं अम्हे [हिं] तित्थयत्तं करिय । चंदप्पहसामियं वंदिया धम्मचके गंतूणमागच्छामो, । ताहे गोयमा अदोणमणसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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