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निबन्ध-निचय
: १७३
'कल्लं सव्विड्डीए, पूएमहऽदछ धम्मचक्कं तु । विहरइ सहस्समेगं, छउमत्थो भारहे वासे ॥३३५॥"
अर्थात्-भगवान् ऋषभदेव हस्तिनापुर से विहार करते हुए पश्चिम में बहली देश की राजधानी तक्षशिला' के उद्यान में पधारे। वनपालक ने राजा बाहुबली को भगवान् के आगमन की बधाई दी। राजा ने सोचाकल सर्व ऋद्धि-विस्तार के साथ भगवान की पूजा करूंगा। राजा बाहुबली दूसरे दिन बड़े ठाट-बाट से भगवान् की तरफ गया, परन्तु उसके जाने के पूर्व ही भगवान् वहां से विहार कर चुके थे। अपने पूज्य पिता ऋषभ को निवेदित स्थान तथा उसके आसपास न देखकर बाहुबली बहुत ही खिन्न हुए और वापिस लौटकर भगवान् रात भर जहां ठहरे थे उस स्थान पर एक बड़ा गोल चक्राकार स्तूप बनवाया और उसका नाम :"धर्मचक्र" दिया। भगवान् ऋषभदेव छद्मस्थावस्था में एक हजार वर्ष तक विचरे ।
आवश्यक-नियुक्ति को उपर्युक्त गाथा के विवरण में चूर्णिकार में धर्मचक्र के सम्बन्ध में जो विशेषता बताई है, वह निम्नलिखित है
जहां भगवान् ठहरे थे, उस स्थान पर सर्व-रत्नमय एक योजन परिधि वाला, जिस पर पांच योजन ऊँचा ध्वजदंड खड़ा है, "धर्मचक्र" का चिह्न बनवाया ।
"बहली अडंबइल्ला, जोगगविसनो सुवण्णभूमीन । आहिंडिया भगवया, उसभेण तवं चरतेणं ॥३३६॥ बहली अ जोणगा पल्हगा य जे भगवया समणुसिट्ठा। अन्ने य मिच्छ जाई, ते तइया भद्दया जाया ॥३३७॥ तित्थय राणं पढमो, उसभरिसी विहरिओ निरुवसग्गो । अट्ठावनो णगवरो, अग्ग (य) भूमी जिणवरस्स ॥३३८।।
(१) आधुनिक पश्चिमी पंजाब के रावलपिंडी जिले में "शाह की ठेरी" नाम से जो स्थल प्रसिद्ध है वही प्राचीन 'तक्षशिला" थी, ऐगा शोधकों का निर्णय है ।
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