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________________ १७२ : निबन्ध-निचय प्रसंग से लाभ उठाना चाहा । वह अपने ऐरावण हाथी पर आरूढ़ होकर दिव्य परिवार के साथ भगवान् के पास क्षण भर में आ पहुँचा । उसने तीन प्रदक्षिणा देकर दशार्णकूट पवत की एक लम्बी चौड़ी चट्टान पर अपना वाहन ऐरावण हाथी उतारा। दिव्य-शक्ति से इन्द्र ने हाथी के अनेक दांतों पर अनेक बावड़ियां, बावड़ियों में अनेक कमल, कमलों की कणिकानों पर देव-प्रासाद और उनमें होने वाले बत्तीस पात्रबद्ध नाटकों के अद्भुत दृश्य दिखलाकर राजा की शक्ति और सजावट को निस्तेज बनाकर उसके अभिमान को नष्ट कर दिया। राजा ने देखा-इन्द्र की ऋद्धि के सामने मेरी ऋद्धि नगण्य है। भला, सूर्य के प्रकाश के सामने छोटा सा सितारा कैसे चमक सकता है ? उसने अपने पूर्व भव के धर्मकृत्यों की न्यूनता जानी और भगवान् महावीर का वैराग्यमय उपदेशामृत पान कर संसार का मोह छोड़ वह श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया । दशार्णकूट की जिस विशाल शिला पर इन्द्र का ऐरावण खड़ा था, उस शिला में उसके अगले पगों के चिह्न सदा के लिए बन गये। बाद में भक्तजनों ने उन चिह्नों पर एक बड़ा जिनचैत्य बनवाकर उसमें भगवान महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई, तब से इस स्थान का नाम "गजाग्रपद" तीर्थ के नाम से अमर हो गया। अाज यह गजाग्रपद तीर्थ भूला जा चुका है। यह स्थान भारतभूमि के अमुक प्रदेश में था, यह भी निश्चित रूप से कहना कठिन है फिर भी हमारे अनुमान के अनुसार मालवा के पूर्व में और आधुनिक बुंदेलखण्ड के प्रदेश में कहीं होना संभवित है । (४) धर्मचक्र तीर्थ : आचारांगनियुक्ति में सूचित चौथा तीर्थ "धर्मचक्र'' है। धर्मचक्र तीर्थ की उत्पत्ति का विवरण आवश्यकनियुक्ति तथा उसकी प्राचीन प्राकृत टीका में नीचे लिखे अनुसार मिलता है--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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