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निबन्ध-निचय
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"योजनद्वयतुङ्गेऽस्य शृङ्गे जिनगृहावलिः । पुण्यराशिरिवाभाति शरच्चन्द्रांशुनिर्मला ॥४॥ सौवर्ण- दण्ड- कलशा-मलसारकशोभितम् । चारुचैत्यं चकास्त्यस्योपरि श्रीनेमिनः प्रभोः ||५|| श्रीशिवासूनुदेवस्य पादुकात्र निरीक्षिता । स्पृष्टाऽचिताच शिष्टानां पापव्यूहं व्यपोहति ॥ ६ ॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्य जरत्तृणमिव प्रभुः । बन्धून् विधूय च स्निग्धान् प्रपेदेऽत्र महाव्रतम् ॥७॥ अत्रैव केवलं देवः, स एव प्रतिलब्धवान् । जगज्जनहितैषी स, पर्यवोच्च निर्वृतिम् ||८|"
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अर्थात् - 'इस उज्जयन्त गिरि के दो योजन ऊंचे शिखर पर बनवाने वालों के निर्मल पुण्य की राशि सी, चन्द्रकिरण समान उज्ज्वल जिनमन्दिरों की पंक्ति सुशोभित है । इसी शिखर पर सुवर्णमय दण्ड, कलश तथा ग्रामलसारक से सुशोभित भगवान् नेमिनाथ का सुन्दर चैत्य दृष्टिगोचर हो रहा है । यहीं पर प्रतिष्ठित शैवेय जिनकी चरणपादुका दर्शन, स्पर्शन श्रौर पूजन से भाविक यात्रिकरण के पापों को दूर करती है और यहीं पर जी तिनखे की तरह समृद्ध राज्य तथा विशाल कुटुम्ब का त्याग कर भगवान् नेमिनाथ ने महाव्रत धारण किये थे और यहीं पर भगवान् केवलज्ञानी हुए, तथा जग हित चिन्तक भगवान् नेमिनाथ यहीं से निर्वारण पद को प्राप्त हुए ।
"अतएवात्र कल्याण - त्रयमन्दिरमादधे । श्रीवस्तुपालो मन्त्रीशचमत्कारितभव्यहृत् ॥ ६ ॥
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जिनेन्द्रबिंब पूर्णेन्द्र मण्डपस्था जना इह । श्री नेमेर्मज्जनं कर्तु - मिन्द्रा इव चकासति ॥ १० ॥ गजेन्द्रपदनामास्य, कुण्डं मण्डयते शिरः । सुधाविधैर्जलैः पूर्णं, स्नाप्यार्हृत्स्नपनक्षमैः ॥ ११ ॥
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