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१६२ :
निबन्ध-निचय
अट्टावयंमि सेले, चउदस भत्तेण सो महरिसोगं । दसहि सहस्सेहिं समं निव्वाणमरणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४ ॥
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निव्वाणं चिइगागिई, जिरणस्स 1 इक्खाग सेसयाणं च' । सकहा ' थूभरजिणहरे' जायग' तेरणाहि अग्गिति ॥ ४३५ || "
'तब संसार दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके ग्रनुक्रम से अष्टापद पर्वत पर पहुंचे और छ: उपवास के अन्त में दस हजार मुनिगरण के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए ।। ४३३ ।। ४३४ ॥
भगवान् और उनके शिष्यों के निर्वारणानन्तर चतुर्निकायों के देवों ने श्राकर उनके शवों के अग्निसंस्कारार्थ तीन चिताएँ बनवाई । एक पूर्व में गोलाकार चिता तीर्थङ्करशरीर के दाहार्थ, दक्षिण में त्रिकोणाकार चिता इक्ष्वाकु वंश्य गणधर आदि महामुनियों के शव दाहार्थ और पश्चिम दिशा की तरफ चौकोरण चिता शेष श्रमरणगरण के शरीरसंस्कारार्थ बनवाई और तीर्थङ्कर आदि के शरीर यथास्थान चिताओं पर रखवाकर, श्रग्निकुमार देवों ने उन्हें अग्नि द्वारा सुलगाया । वायुकुमार देवों ने वायु द्वारा अग्नि को तेज किया और चर्म मांस के जल जाने पर, मेघकुमार देवों ने जल-वृष्टि द्वारा चिताओं को ठण्डा किया । तब भगवान् के ऊपरी बायें जबड़े की शक्रेन्द्र ने, दाहिनी तरफ की ईशानेन्द्र ने, तथा निचले जबड़े की बायो तरफ की चमरेन्द्र ने और दाहिनी तरफ की दाढ़ायें बलीन्द्र ने ग्रहण कीं । इन्द्रों के अतिरिक्त शेष देवों ने भगवान् के शरीर की अन्य अस्थियां ग्रहण कर लीं, तब वहां उपस्थित राजादि मनुष्यगण ने तीर्थङ्कर तथा मुनियों के शरीरदहन स्थानों की भस्मी को भी पवित्र जानकर ग्रहण कर लिया । चिताओं के स्थान पर देवों ने तीन स्तूप बनवाये और भरत चक्रवर्ती ने चौबीस तीर्थङ्करों की वर्ण- मानोपेत सपरिकर मूर्तियाँ स्थापित करने योग्य "जिन-गृह” बनवाये । उस समय जिन मनुष्यों को चिता से अस्थि भस्मादि नहीं मिला था उन्होंने उसकी प्राप्ति के लिए देवों से बड़ी नम्रता के साथ याचना की जिससे इस अवसर्पिणी काल में "याचक" शब्द
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