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निबन्ध-नियम
भूमि, देवलोक, असुरादि के भवन, मेरुपर्वत, नन्दीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन-प्रतिमाओं को, अष्टापद; उज्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र, अहिच्छत्रास्थित-पार्श्वनाथ, रथावर्त पर्वत, चमरोत्पात इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन-प्रतिमाओं को वन्दना करता हूं ॥ ३३१ ॥ ३३२ ॥
नियुक्तिकार भगवान् ने, तीर्थङ्कर भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, विहार, ज्ञानोत्पत्ति, निर्वाण आदि के स्थानों को तीर्थ स्वरूप मानकर वहां रहे हुए जिन-चैत्यों को वन्दन किया है। यही नहीं, परन्तु राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, स्थानांग, भगवती आदि सूत्रों में वरिणत देवलोक स्थित. असुरभवन स्थित, मेरु स्थित, नन्दीश्वर द्वीप स्थित और व्यन्तर देवों के भूमिगर्भ स्थित नगरों में रहे हुए चैत्यों की शाश्वत जिन-प्रतिमानों को भी वन्दन किया है।
नियुक्ति की गाथा तीन सौ बत्तीसवीं में नियुक्तिकार ने तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए सात अशाश्वत जैन तीर्थो को वन्दन किया है, जिनमें एक को छोड़कर शेष सभी प्राचीन तीर्थ विच्छिन्नप्राय हो चुके हैं, फिर भी शास्त्रों तथा भ्रमण वृत्तान्तों में इनका जो वर्णन मिलता है उसके आधार पर इनका यहाँ संक्षेप में निरूपण किया जायगा।
(१) अष्टापद : अष्टापद पवंत ऋषभदेवकालीन अयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था। भगवान् ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते, तब अष्टापद पर्वत पर ठहरते थे और अयोध्यावासी राजा-प्रजा उनकी धर्मसभा में दर्शन-वन्दनार्थ तथा धर्म-श्रवणार्थ जाते थे, परन्तु वर्तमान कालीन अयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत आज दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे "अष्टापद" माना जा सके। इसके अनेक कारण ज्ञात होते हैं, पहला तो यह कि भारत के उत्तरदिग्विभाग में रही हुई पर्वत श्रेणियां उस समय में इतनी ठण्डो और हिमाच्छादित नहीं थीं जितनी आज हैं।
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