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________________ निबन्ध-निचय १५६ वर्णन न होने पर भी कल्पों, जैन चरित्र-ग्रन्थों, प्राचीन स्तुति-स्तोत्रों में इनका महिमा गाया गया है। उक्त वर्गों में से इस लेख में हम प्रथम वर्ग के सूत्रोक्त तीर्थों का हो संक्षेप में निरूपण करेंगे। सूत्रोक्त-तीर्थ प्राचारांग नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं में प्राचीन जैन तीर्थों के नाम निर्देश मिलते हैं "दंसण-नाण-चरित्ते, तववेरग्गे य होइ उ पसत्या । जाय जहा ताय तहा, लक्खणं वुच्छं सलक्खण ओ ॥३२६।। तित्थगराण भगवनो, पवयण-पावयरिण-अइसयड्ढीणं । अभिगमण-नमरण-दरिसण,-कित्तण संपूअणा थुरगणा ॥३३०॥ जम्माऽभिसेय-निक्खमण-चरण नाणुप्पया च निव्वाणं । दियलोय - भवण - मंदर - नंदीसर - भीमनगरेसु ॥३३१।। अट्ठावयमुज्जिते; गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पास-रहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३३२ ॥', अर्थात्-दर्शन ( सम्यक्त्व ) ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य विनय विषयक भावनायें जिन कारणों से शुद्ध बनती हैं, उनको स्वलक्षणों के साथ कहूंगा ।। ३२६ ।। तीर्थकर भगवन्तों के; उनके प्रवचन के, प्रवचन-प्रचारक प्रभावक प्राचार्यों के; केवल-मनःपर्यव-अवधिज्ञान-वैक्रियादि अतिशायि लब्धिधारी मुनियों के सन्मुख जाने, नमस्कार करने, उनका दर्शन करने, उनके गुणों का कीर्तन करने, उनकी अन्न वस्त्रादि से पूजा करने से, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य, सम्बन्धी गुणों की शुद्धि होती है ॥ ३३०॥ जन्म-कल्याणक स्थान, जन्माभिषेक स्थान, दीक्षा स्थान, श्रमणावस्था की विहारभूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति का स्थान, निर्वाण-कल्याणक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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