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________________ निबन्ध - निचय मूल सूत्रों में अन्तःशीर्षक तथा गुरुप्रति वचन : मूल सूत्रों में ग्रन्तःशीर्षकों और गुरुप्रति वचनों को दाखिल करने का हमने विरोध किया । उसका बचाव करते हुए श्री गांधी कहते हैं कि "प्राचीन टीकाकार ऐसा करते आये हैं", यह उनका कथन केवल भ्रान्त है । प्राचीन किसी भी टीकाकार ने अन्तःशीर्षक अथवा तो गुरुप्रति वचन मूल पाठ में दाखिल नहीं किये । लेखकों की अज्ञानता से मूल टीका के साथ वैसा कहीं लिखा गया हो तो बात जुदी है, बाकी टीकाकारों का कर्त्तव्य तो टीकाओं में प्रत्येक सूत्र का रहस्य प्रकट करने का होता है । अष्टांग - विवरणकार की तरह विधि में लिखने की बात मूल में मिलाकर विकृति उत्पन्न करने का नहीं । पूर्व टीकाकारों के नाम लेकर गांधी का यह बचाव बिल्कुल पंगु है, इसी प्रकार लघुशान्ति में दिये हुए अन्तःशीर्षक पुस्तक-पाठियों के लिए असुविधाजनक है । परन्तु जहां लेखकों को अपना तांत्रिक ज्ञान बताने की उत्कंठा हो वहां इनको वाचकों की सुविधा - दुविधा का विचार न आये यह स्पष्ट है । उपसंहार : हमारे पूर्व लेख में "आयरिय उवज्झाओ” आदि सूत्रों में टीकाकारों के दिये हुए पाठान्तर का समन्वय करने की हमने गीतार्थों को विज्ञप्ति की थी । जिसका प्रबोध टीका या उसके संशोधकों के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं था, फिर भी प्रस्थापित महत्तर बनकर श्री गांधी ने अपने धैर्य का प्रदर्शन कराया यह अनावश्यक था । गांधी गीतार्थ या गीतार्थों के प्रतिनिधि नहीं हैं, तब इनको इसमें झुक पड़ने की जरूरत क्यों पड़ी ? यह हम समझ नहीं सकते। हम चाहते हैं कि श्री गांधी ऐसी अनधिकृत प्रवृत्तियों में पड़ने का मोह छोड़ेंगे तो अपनी मर्यादा को बचा सकेंगे । यहाँ भी हम शुद्धि पत्रक दिया है शुद्धियों का है । Jain Education International : १४६ गीतार्थ वर्ग को विज्ञप्ति करते हैं कि ऊपर हमने जो वह प्रबोध टीका वाले प्रतिक्रमण सूत्र के मूल की इसकी टीका में जैन शैली के विरुद्ध अनेक भूलें होने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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