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मिबन्ध-मिचय
नहीं थी, कारण कि प्राचीन भाषा पर से किसी भी पर्वाचीन भाषा का निर्माण होता है। पर श्री गांधी अर्वाचीन भाषा के प्रचलित शब्दों को प्राचीन भाषा की तरफ खींचकर उलटी गंगा चलाते हैं ।
___ "अपने आवश्यक सूत्रों में चलती हुई अशुद्धियां' इस शीर्षक के नीचे हमने बताई हुई अशुद्धियों का विवरण और गांधी लालचन्द भगवान् की "शुद्धिविचारणा" की मीमांसा ऊपर लिखे अनुसार है। शुद्धिविचारणा में गांधी ने अनेक स्थलों में प्रान्तर विषयों पर लक्ष्य देकर कुछ वर्णन किया है। उस पर हमें कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु कुछ बातें इन्होंने ऐसी लिखी हैं कि जिनका उत्तर देना भी आवश्यक है।
अजितशान्ति के छन्दों के सम्बन्ध में हमारी टीका श्री गांधी को कुछ कटु ज्ञात हुई होगी, इससे वे पाश्चात्य विद्वानों के दृष्टान्त देकर छन्द आदि के संशोधन का सम्पादकों को अधिकार होने की बात करने निकले हैं, सो तो ठीक है, अधिकारी के लिए अधिकार होना बुरा नहीं। आधुनिक अथवा तो मध्यकालीन छन्दःशास्त्र के छन्दों द्वारा अजितशान्ति के छन्दों की तुलना कर उनमें अशुद्धियां बताने का संशोधकों को अधिकार नहीं था। "प्राकृत छन्दःशास्त्र" में एक ही नाम के भिन्न २ लक्षण वाले छन्द होते हैं। इस स्थिति में नाम सादृश्य को लेकर एक का लक्षण दूसरे उसी नाम के छन्दों में घटाने में भूल का विशेष संभव रहता है। अजितशान्ति के निर्माण-काल में बने हुए किसी प्राकृत छन्द.शास्त्र के संशोधकों को हाथ लगने की भी बात इन्होंने कहीं लिखी नहीं है, इससे भी छन्दोविषयक हमारी टीका यथास्थान थी। युरोपियन छन्द आदि की मीमांसा करके उसमें से कुछ तत्त्व निकालते हैं। छन्दों पर से कृति का निर्माण समय अनुमित करते हैं। व्याकरण आदि के प्रयोगों पर से भी वे कृति की प्राचीनता अर्वाचीनता का पता लगाते हैं। प्रबोध टीका के संशोधकों ने ऐसी लाइन से छन्दो-विषयक चर्चा की होती तो हमको कुछ भी कहना नहीं था, पर इन्होंने तो अर्वाचीन छन्दःशास्त्र के आधार से प्राचीन छन्दों की परीक्षा करके कितने ही स्थलों में गाथाओं का अंग भंग कर दिया है, इससे हमें कुछ लिखना पड़ा है ।
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