SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निबन्ध-निचय : १४७ की आपत्ति आती है और ऐसा होने से छन्दोभंग होगा। "श्री तिलकाचार्य कृत सामाचारी" आदि ग्रन्थों में जहां संथारा पोरिसी की गाथायें दी गई हैं वहां 'कुक्कुड' शब्द का ही प्रयोग किया है। गाथान्तरों में 'कुक्कुड' अथवा 'कुक्कुडि' शब्द भी हो सकता है, परन्तु प्रस्तुत गाथा में तो 'कुक्कुड' शब्द प्रयोग ही शुद्ध है। 'कुक्कुडि' का स्वीकार करने से लाक्षणिक भूल प्राती है और लाक्षणिक भूल को बचाने से छन्दोभंग होता है, यह पहिले ही कह चुके हैं। हमारे पास के अतिप्राचीन पन्ने में लिखी हुई संथारा पोरिसी में भी "कुक्कुड' ऐसा ही पाठ मिलता है और उसी पन्ने में: "अंतरंत नहीं" पर "अतरन्तु' प्रयोग लिखा हुआ है, जो यथार्थ है क्योंकि अलाक्षणिक विभक्ति का लोप मानने से भी छन्दोभंग टालने के लिए दीर्घ स्वर को ह्रस्व बनाना यह विशेष उचित माना जायगा। यह कर्मणि प्रयुक्त सौत्र क्रियापद है और उन अष्टादश पाप-स्थानों को प्रात्मा ने छोड़ा उसका इस क्रियापद से सूचन किया है, न कि इस पद से 'बोसिरसु'। प्रात्मा किसी को पाप-स्थानकों के त्याग का उपदेश करता है। अगली गाथा के साथ इस गाथा का सम्बन्ध होने का कथन भी गांधी की कल्पना मात्र है। अगली गाथा में सूत्रकार आत्मा को अकत्व भावना में उतार कर अनुशासन करने का उपदेश करते हैं, इसीलिए "मनुसासइ" नहीं पर 'अणुसासो" ऐसा विध्यर्थक क्रियापद जोड़ा है। गांधी "मुज्झह वईर न भाव" इस भ्रान्त पाठ का बचाव करते हुए "प्राचार दिनकर" तथा चौदहवीं शती की ताडपत्रीय पोथी की गाथा लिखकर कहते हैं कि इसमें "न मह वइरु न पायो'' "नइ मह वइरु न पावु" ऐसा पाठ होने का सूचन करते हैं, परन्तु इन दोनों गाथाओं के चरण में "अंतिम' शब्द "पाओ" अथवा “पावु' शब्द है, "भाव" शब्द नहीं। गांधी को अगर यह पाठ यथार्थ लगा होता तो भाव के स्थान पर पाव' शब्द को स्वीकार किया होता। केवल अपने शब्द प्रयोगों को खरा ठहराने के लिए अन्यार्थवाचक शब्द का प्रमाण देने से यह पाठ शुद्ध नहीं ठहर सकता। नं०६२-६३ सकलतीर्थ में आते "अडलख" तथा "अंतरीख' आदि भाषा के शब्दों को द्वित्व व्यंजनों द्वारा भारी बनाने की कुछ भी जरूरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy