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निबन्ध-निचय
इत्यादि वाक्यों में ह्रस्व इकार का ही प्रयोग विशेष आता है। "अजितर शान्तिस्तव" भी सूत्रकालीन है, इसलिए 'ह्रस्व इकारान्त' ही 'आसि' होना चाहिए और प्रबोध टीकाकार ने भी यह ह्रस्व इकारान्त प्रयोग ही स्वीकार किया है। श्री गांधी को इसके सम्बन्ध में इतना लिखने की क्या आवश्यकता पड़ी यह हमारी समझ में नहीं आता।
नं० ३४ से ४४ पर्यन्त की ग्यारह भूलें हमने दिखाई हैं, उनका विवरण यह है-'उद्योत' इस शब्द में उत् उपसर्ग और 'द्योत' शब्द होने से 'उद्द्योत' इस प्रकार डबल “दकार" होना चाहिए परन्तु छपा एक है । यह व्याकरण की भूल सुधरनी चाहिए। 'भूमण्डले आयतन' निवासी यह पाठ प्रबोध टीका के सम्पादकों का स्वीकृत पाठ है। परन्तु हमारी राय में 'भूमण्डलायतने' निवासी पाठ होना चाहिए। आयतन शब्द जैन-शास्त्र में पारिभाषिक माना है और इसका अर्थ "धर्मस्थानक" ऐसा होता है, अर्थात् 'भूमण्डले पायतन निवासी' यह पाठ खरा माना जायगा तो साधु-साध्वियां तो ठीक पर श्रावक श्राविका का स्थान पायतन नहीं माना गया और इससे इन दोनों का निर्देश निरर्थक ठहरेगा। शान्ति के टीकाकार श्री हर्षकीति सूरि ने मायतन का अर्थ "स्व स्व स्थान" ऐसा जो किया है वह शास्त्र की दृष्टि से भूल भरा है। जैन सिद्धान्त में गृहस्थ के घर को जिसमें ये खुद रहते हों उसको पायतन नहीं माना। . "पायतन" का अर्थ "जिन-मन्दिर" अथवा "जैन साधु साध्वियों के रहने के स्थल" ऐसा होता है। आयतन का उक्त अर्थ होने से भूमण्डले पायतन निवासी' यह पाठ आपत्तिजनक ठहरेगा, इस वास्ते भूमण्डल को हो पायतन मानकर शांतिकार ने उस पर रहने वाले साधु साध्वी प्रादि चतुर्विध संघ का नाम निर्देश किया है। "शाम्यन्त २" इस पाठ का बचाव करते हुए श्री गांधी लिखते हैं कि प्राचीन पोथी में "शाम्यन्तु शाम्यन्तु" ऐसा पाठ मिलता होने से प्रकाशित किया है। गांधी के इस बचाव को हम विश्वसनीय नहीं मानते, कारण कि जिन हर्षकीर्ति सूरि के वचनों पर वे इतना विश्वास रखते हैं वे ही हर्षकीर्ति "शाम्यन्तु" इस क्रियापद को "डमरुक न्याय से दो तरफ जोड़ने का उल्लेख करते हैं।" यदि उनके पास वाले पुस्तक में "शाम्यन्तु २"
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