SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निबन्ध-निचय : १४३ ऐसा द्वित्व पाठ होता तो उनको डमरुक न्याय लगाने की आवश्यकता ही न रहती । इससे जाना जाता है कि प्राचीन पोथी का नाम आगे करके गांधी अपना बचाव मात्र करना चाहते हैं । वादिवेतालीय अदभिषेक विधि का हमने जिस प्राचीन प्रति पर से सम्पादन किया है उसमें - “श्रीसंघ जगज्जनपद, - राज्याधिप राज्यसन्निवेशानाम् । गोष्ठी-पुर-मुख्याणां व्याहरणैर्व्याहरेच्छान्तिम् ॥ " - यह प्रार्या लिखी है, जिसमें राज्याधिप, राज्यसन्निवेश, गोष्ठी, पुरमुख्य, ये शब्द प्रयुक्त होते हैं और उसके पंजिकाकार ने भी यही पाठ मान्य रक्खा है । वास्ते राजाधिप, - राजसन्निवेश, गौष्ठिक, पौरमुख्य, इन शब्दप्रयोगों को हमने अशुद्ध बताया है, कारण कि प्रस्तुत शान्ति ही श्रभिषेककार की है इसलिए उनके शब्द ही शुद्ध माने जाने चाहिए । अब रही 'तित्थयर माया' की बात, सो पहले तो यह गाथा शान्तिकार की कृति नहीं है, किन्तु पीछे से किसी ने जोड़कर शान्ति के पीछे लगा दी है और इसमें आने वाला "तित्थयर" यह शब्द किसी ने घुसेड़ दिया है, क्योंकि स्वर्गस्थित तीर्थङ्कर माता श्री शिवादेवी का इस शान्ति के साथ कोई सम्बन्ध किसी भी प्रमाण से साबित नहीं होगा । किन्तु आवश्यक चूरि में कही हुई एक घटना पर से इस वस्तु का सम्बन्ध उज्जेणी के राजा "चण्डप्रद्योत " की पट्टरानी "शिवादेवी" के साथ हो सकता है । अभयकुमार चण्डप्रद्योत के ताबे में था, उस समय की घटना है कि उज्जयिनी में महामारी फैल गई थी । प्रतिदिन सैंकड़ों मनुष्य मरते थे, तब इस महामारी की उपशान्ति के लिए अभयकुमार को चण्डप्रद्योत ने उपाय पूछा । अभयकुमार ने कहा- व्यन्तर देवियों का उपद्रव है, जो राजा की मुख्य पट्टरानी शिवादेवी महलों पर की चांदनी में खड़ी रह कर व्यन्तरियों को अपने हाथ से बलि-क्षेप करे तो महामारी का उपद्रव शान्त हो सकता है । उपर्युक्त अभयकुमार की सलाह के अनुसार बलि तैयार करा कर रानी शिवादेवी महल पर चढ़कर जिस जिस दिशा में से व्यन्तरी शिवारूप से बोलती रानी उसके मुख में बलिक्षेप करती और वहां 'अहं सिवागोवालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy