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निबन्ध-निचय
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प्रर्थात् 'अग्नि', क्योंकि 'दीपक' और 'अग्नि' तो एक ही चीज है, इसलिए 'अनल' शब्द यहां किसी काम का नहीं है । श्री गांधी को यह समझ लेना चाहिए था कि 'उपमा' एकदैशिक होती है और उपमेय के किसी भी एक गुण का स्पर्श करती है, न कि इसके सम्पूर्ण जीवन का । पाप प्रतापक है इसलिये इसको "दीपक" रूप "अग्नि" की उपमा देना संगत है श्री " वीतराग देव पापनाशक हैं" इसलिए पाप रूप दीपक को बुझाने के लिए समर्थ होने से उनको "वायु" की उपमा बराबर घटित होती है । श्री गांधी का यह दुराग्रह मात्र है कि ऐसी स्पष्ट भूलों का भी बचाव करते हैं ।
नंम्बर २०-२१-२२-२३-२४-२५-२६-२७-२६-२६-३०-३१ प्रतिचार की बारह भूलों में से एक भी भूल का श्री गांधी ने बचाव नहीं किया। वैसे भूलों को स्वीकार नहीं किया, यदि ये भूलें इनको ज्ञात हुईं होती तो इनका स्पष्ट रूप से स्वीकार करना चाहिए था और ये भूलें नहीं हैं यह जानते तो इनका प्रतीकार करने की आवश्यकता थी, क्योंकि प्रत्येक भूल के सम्बन्ध में इन्होंने अपना बचाव करने की ही नीति अपनाई है । यह स्थिति होने पर भी गांधी यहां कुछ भी नहीं बोलते, यह एक अज्ञेय बात है । हमें लगता है कि उक्त भूलें श्री धीरजलाल की प्रथवा श्री गांधी की न होकर सम्पादक मंडलान्तर्गत एक पंन्यासजी की होनी चाहिए । क्योंकि प्रबोध टीका के पहले पालीताना से छपकर प्रकाशित होने वाले एक पंच प्रतिक्रमण के पुस्तक में इन्हीं भूलों की पूर्वावृत्ति हुई हमने देखी है । वह पुस्तक भी प्रस्तुत सम्पादक मण्डल में के एक पन्यास के तत्त्वावधान में ही छपी है और उन्हीं भूलों की इसमें पुनरावृत्ति की हो ऐसा लगता है ।
नं० ३२-३३ इन प्रजित शान्ति की दो भूलों में से पहिली पहिले से वली आने वाली है और दूसरी भूल है प्रेस की । श्री गांधी ने मेहसाना
की प्रावृत्ति में आते "सी" ठहराने का प्रयत्न किया है प्रयोग होते ही रहते हैं ।
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इस दीर्घ 'ई' कारांत क्रियापद को शुद्ध प्राकृत भाषा में ऐसे ह्रस्व-दीर्घ विषयक सूत्रकालीन भाषा में "प्रासि राया महिड्डियो"
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