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निबन्ध-निचय
एक प्राचीन पन्ने में "विलिज्जति" ऐसा क्रियापद स्पष्ट लिखा हुआ है । यदि "लक्षणसिद्ध" प्रयोग मिल जाता हो तो लाक्षणिक प्रयोग को पकड़े रखना यह दुराग्रह मात्र कहा जायगा । प्रबोध टीका वाले प्रतिक्रमण पुस्तक में स्वाध्याय के 'मयगरहा' शब्द को हम अशुद्ध मानते हैं । इसका कारण यह है कि इस प्रयोग को मान्य रखने से गाथा में मात्रा बढ़ती है श्री छन्दोभंग होता है, इसलिए 'मयगरेह' यह ही प्रयोग रहना चाहिए । श्राज पहिले के हर पुस्तक में यह प्रयोग ही दृष्टिगोचर होता है । में छन्दोभंग टालने के लिए मात्रा आगे पीछे की जा सकती है ।
प्राकृत
।
अतः प्राचीन पत्र
नं० १५-१६ ये भूलें 'मन्नह जिरणारण' स्वाध्याय की हैं। ऐसे तो श्रन्य मुद्रित पुस्तकों में ये अधिक हैं, परन्तु प्रबोध - टीका में कितनी ही सुधर गई हैं। हमारे पास के हस्तलिखित प्रति जीर्ण पत्र में "भासासमिईउ जीवकरुणा य" ऐसा पाठ है और यही बराबर है । क्योंकि "छ" शब्द कायम रखने से अक्षर बढ़ता और छन्दोभंग होता है में मिला हुआ पाठ ही मूल पाठ गिनना चाहिए । जो पाठ मान्य किया हो, क्योंकि यह मूल कृति उनसे से उनके समय से पहले ही यह भूल प्रविष्ट हो गयी होगी और इन्द्रहंस गरि ने इसको स्वीकार कर लिया होगा तो भी इससे यह पाठ मौलिक है ऐसा नहीं कह सकते ।
नं० १७-१८-१९ ये तीन भूलें सकलार्हत् स्तोत्र की हैं । इनमें १७ और ११ नम्बर की भूलें संधि-विषयक हैं । श्री गांधी कहते हैं" सुगमता के खातिर संधि नहीं की । ' पर गांधी को समझ लेना चाहिए था कि पद्य विभाग में ऐसा करने का कवि सम्प्रदाय नहीं है । प्रथम द्वितीय पाद में तथा तृतीय चतुर्थ पाद में यदि संधि को अवकाश हो तो श्रवश्य कर लेना चाहिए, ऐसा कवि सम्प्रदाय का दृढ़ नियम है । यह बात सम्पादकों के ध्यान में हो ऐसा ज्ञात नहीं होता । भूल नं० १८वीं शब्दान्तर विषयक है, प्रबोध - टीका में 'अनल' शब्द का प्रयोग है जो सचमुच ही विपरीत है । वास्तव में वायु वाचक "अनिल" शब्द होना चाहिए, क्योंकि 'दीपक' को बुझाने के लिए वायु ही प्रसिद्ध है न कि 'अनल',
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इन्द्रहंस गरिण ने चाहे
भी बहुत प्राचीन होने
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