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निबन्ध-निचय
तद्गत अशुद्धियों का शुद्धिपत्रक दिया है। परन्तु श्री लालचन्द गांधी को शुद्धिविचारणा की इतनी उत्कण्ठा लगी हुई थी कि जो भी अशुद्धियों के प्रतिकार के रूप में हाथ लगा उसी को लिखने लगे। शुरु में ही सब सूत्रों को छोड़कर सर्वप्रथम "बृहच्छान्ति की शुद्धि-विचारणा' लिखी, यह हमारे उक्त कथन की सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। भले ही श्री गांधी ने चाहे जिस क्रम से लिखा परन्तु हम सूत्र क्रम से ही “शुद्धिविचारणा की समालोचना" करेंगे।
भूल नं० १-२-३ ये इरियावहि में आती 'इ' कार की दीर्घता सम्बन्धी हैं। प्रत्येक गच्छ के प्रतिक्रमण सूत्र में तथा “वन्दारुवृत्ति", "प्राचारविधि" प्रादि तपागच्छ के प्राचार ग्रन्थों में इरियावहि का प्रथमाक्षर (इ) ऐसा ह्रस्व माना हुआ है, फिर भी प्रबोध टीका के संशोधकों ने दीर्घ (ई) का प्रयोग किया है जो हमारे मत से "अशुद्धि” अर्थात् भूल है । बात बात में मुद्रित ग्रन्थों तथा लिखित पोथियों का नाम निर्देश कर श्री गांधी भूलों का बचाव करते हैं। तब इस जगह में सैंकड़ों वर्षों की परम्परागत ह्रस्व इ कार के स्थान में दीर्घ "ई" कार का प्रयोग किस प्राशय से संशोधकों ने किया यह अज्ञेय बात है। भले ही व्याकरण से वैकल्पिक दीर्घ रूप होता हो; फिर भी इस चिर-प्रचलित तथा पूर्वाचार्यों ने मान्य किये हुए ह्रस्व 'इ' कार को उखाड़ कर दीर्घ 'ई' कार का प्रयोग करना अघटित है। सम्पादकों को अपनी विद्वत्ता बताने के अनेक स्थल थे। सर्वसम्मत प्रयोग को बदल कर पांडित्य बताने की यहां जरूरत न थी।
नं. ४ की अशुद्धि का श्री गांधी ने स्वीकार कर लिया है, इससे विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं।
नं० ५-६-७ इन नम्बरों की तीनों भूलों को श्री गांधी ने "प्राचारदिनकर आदि में ऐसा है" यह कहकर बचाव किया है। पर जिन ग्रन्थों के गांधी नाम देते हैं उन ग्रन्थों के निर्माताओं को ये प्रयोग मान्य थे ऐसा वे सिद्ध कर नहीं सकते, तब ये भूलें लिपिकारों की कैसे न हों। कारण
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