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निबन्ध-निचय
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स्वरूप हमको अशुद्धि सम्बन्धी लेख प्रकाशित करने की फरज पड़ी थी। परन्तु श्री गांधी तो हमारी बात सुनने के पहले अपने रोष का संभार बाहर निकालने में ही अधिक समय पूरा करते थे और सेवाभाव से काम करने वाले साहित्यसेवियों का अपमान मानकर उपालंभ दिये जाते थे। हमको ऐसे साहित्य-सेवकों के लिए अधिक मान न था। मजदूरी ठहरा के कार्य करने वाले मनुष्य पाश्चात्य सभ्यता की दृष्टि से भले ही सेवक गिने जायें परन्तु भारतीय संस्कृति में ऐसे साहित्य-सेवकों की मान-मर्यादा सीमित होती है। समाज या समाज के व्यक्ति-विशेष के पास से कस कर पारिश्रमिक लेने वाले साहित्य-सेवियों की भूल को भूल कहने का समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार स्वयं सिद्ध है। उक्त प्रकार के साहित्यसेवी श्री गांधी के उपालंभों की हमारे मन पर कुछ भी छाप नहीं पड़ी। परन्तु इतना अवश्य मालूम पड़ा कि श्री गांधी हमारे उक्त लेख के विषय में अविलंब कुछ न कुछ जरूर लिखेंगे यह निश्चित है। लगभग घण्टा भर सिरपच्ची करके अन्त में श्री गांधी "मिच्छा मि दुक्कडं" देकर रवाना हुए।
“शुद्धिविवरण" यथाशक्य जल्दी छपवाने का विचार होने पर भी चातुर्मास्य उतरता होने से अन्यान्य कार्यों के दबाव से विवरण नहीं लिख सके और सन् १९५६ की जनवरी से श्री लालचन्द भाई की “शुद्धिविचारणा' सत्यप्रकाश में प्रकाशित होने लगी। इससे हमने हमारा कार्य ढीला छोड़ ''शुद्धिविचारणा' पूरी होने पर "विवरण" तथा "विचारणा" का उत्तर साथ में ही देने का निर्णय किया। विचारणा के ३ हफ्ते छपने के बाद हमने अहमदाबाद छोड़ा। जाते समय प्रकाश के व्यवस्थापक को सूचना भी की कि ''शुद्धिविचारणा" के अन्तिम भाग वाला अङ्क प्रकाशित होते ही मंगवाने पर हमें भेजा जाय, परन्तु हमारी इस सूचना का पालन नहीं हुआ। ऑफिस पर दो तीन पत्र लिखने पर भी कोई अङ्क नहीं आया, इससे विलंब में विलंब हुआ। अन्त में एक परिचित मुनिवर्य को लिखने से थोड़े समय में अङ्क मिला, इससे “शुद्धिविवरण" तथा "शुद्धि-विचारणा" विषयक यह दूसरा लेख लिखना योग्य जान पड़ा। प्रतिक्रमण के मुद्रित पुस्तक में जिस क्रम से सूत्र छपे हैं उसी क्रम से हमने
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