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ले० कल्याणविजय
शुद्धिविवरण और शुद्धिविचारणा
ई० सन् १९५५ के अक्टूबर की ता० १५ के “जैन सत्यप्रकाश' मासिक में “आपणा आवश्यक सूत्रमा चालती अशुद्धियो' इस शीर्षक के नीचे हमारा लेख छपकर प्रसिद्ध हुअा था। इस लेख के सम्बन्ध में कतिपय विद्वान् साधुओं तथा गृहस्थों ने आनन्द प्रदर्शित किया था, पर इसके विरोध में किसी ने एक शब्द भी नहीं लिखा ।
नवम्बर महीने में (ता० याद नहीं) एक समय रात को आठ बजने के बाद जैन विद्याशाला में हमारे रूम में दो आदमी आये। पूछने पर उन्होंने कहा-एक तो पंडित लाल चन्द भगवान् गांधी और दूसरा हमारे समधी पं० भगवानदास हरखचन्द के छोटे पुत्र। कुछ प्रासंगिक बातों के बाद श्री गांधी ने "प्रतिक्रमण-प्रबोध टीका" की अशुद्धियों का प्रसंग छेड़ा और बताई हुई अशुद्धियों को प्रमाणित करने वाले प्रमाण पूछे। हमने उनको प्रमाण बताए और कहा-कि प्रत्येक अशुद्धि को साबित करने वाले प्रमाण हैं और हम मुद्रित लेख के विवरण के रूप में अवकाश मिलते ही अन्य लेख द्वारा प्रकट करेंगे।
पंडित श्री गांधी का आकुलता से मालूम होता था कि इनको हमारे उक्त लेख से पारावार दुःख हुआ है। वे बात करते करते जोरों से चिल्ला उठते थे। हमने उनको कह दिया था कि हमने अकस्मात् तुम्हारी भूलें नहीं निकाली, किन्तु प्रथम संस्था को अशुद्धियों के सम्बन्ध में सूचना भी की थी, परन्तु अशुद्धियां मंगवाने के बजाय हमको पुस्तकों का सट भेजकर सम्पादक ने हमारा मुह बन्द करने का खेल खेला था। उसी के परिणाम
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