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निबन्ध-निचय
अतरंतु
वोसिरिंसु
अशुद्ध(५६) अतरंत (६०) वोसिरसु (६१) मणुसासइ (६२) मुज्झह वईर न भाव
सकल-तीर्थ में : (६३) अट्ठलक्ख (६४) अंतरिक्त
मांसासए मज्झह, न वइर भाव
प्रडलख अंतरीख
इस अशुद्धि-शुद्धि पत्र में उन्हीं अशुद्धियों को लिया है जिन्हें सम्पादकों ने अपने शुद्धाशुद्ध पत्रक में नहीं लिया। उपरान्त इसके अतिरिक्त भी इन सूत्रों में अशुद्धियाँ होंगी जो हमारी नजर में नहीं आई', अथवा तो हमारे लक्ष्य में नहीं आयीं।
इन सूत्रों में प्राचीन पुस्तकों और ग्रन्थान्तरों में पाठान्तर भी दृष्टिगोचर होते हैं, जिन पर ऊहापोह करके ग्राह्य हों उन्हें मूल में दाखिल कर देना चाहिए। उदाहरण के रूप में-'आयरिश उवज्झा ' में। 'कुल गणे य' 'कुल गणे वा' ।
इत्यादि प्रकार के आवश्यक सूत्रों में अनेक पाठान्तर दृष्टिगोचर होते हैं जो समन्वयापेक्षी हैं। इन सब बातों पर गंभीरता पूर्वक विचार कर गीतार्थों को अपने आवश्यक सूत्रों को परिमार्जित कर शुद्ध मोर सर्वोपभोग्य संस्करण प्रकाशित करना चाहिए।
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