________________
निबन्ध-निचय
कारण से भी "अजित शान्तिस्तव'' के छन्दों की छेड़छाड़ की हो पर उसमें अपनी बुद्धि का ही प्रदर्शन किया है। "छन्दशास्त्र' यह कोई कतिपय वृत्तवाहिनी लघुतरंगिणी नहीं पर लाखों वृत्तों का "महार्णव' है । इसका विचार किये बिना अजित शान्तिस्तव के हजारों वर्षों के पुराने छन्दों की जात का थाह लेने की चेष्टा भी संशोधक को विचारणीय हो पड़ी है। ऐसी वस्तुस्थिति होते हुए संशोधक ने अजित शान्तिस्तव के छन्दों की चर्चा कैसे की यह समझ में नहीं पाता ।।
छन्दों का जाल बहुत जटिल है। अजित शान्तिस्तव के छन्दों का संशोधन करने वाला संशोधक स्वयं ही भूल-भूलामणी में फंसकर "उपजाति" को "इन्द्रवज्रा" तथा "प्रौपछन्दसिक" को "वैतालीय" लिखने की भूल कर बैठे हैं कि जिसकी इनको खुद को खबर नहीं पड़ती, तब अजितशान्ति के छन्दों की इनकी समालोचना भूल भरी न हो, ऐसा कौन कह सकता है।
टीकाकारों का कर्तव्य सूत्र के पाठों की शुद्धि करने का था, इसलिये भावश्यकनियुक्ति, भाष्य, चूरिण, टीकात्रों की पुरानी प्रतियां इकट्ठी कर प्रत्येक सूत्र तथा सूत्रखण्ड को प्राकृत, संस्कृत पाठों के साथ अर्थ की दृष्टि से मिलान करने का था। जहां अर्थ-वैषम्य मालूम होता वहां मूल प्रति में तपास कर अशुद्धियां पकड़नी थी। इस कार्य के लिये केवल अावश्यक पंचांगी की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों की ही जरूरत थी, न कि ११२ जितने आधार-ग्रन्थों की अथवा ३१ जितनी हाथ-पोथियों की बाँध-छोड़ करने की। छन्दों की समालोचना करने की और तान्त्रिक तत्त्व का प्रदर्शन करने का कुछ प्रयोजन ही न था। अष्टांग विवरण के स्थान में "१. शुद्धमूल पाठ, २. संस्कृत छाया, ३. गुजराती भाषा में शब्दार्थ, ४. अन्वयार्थ तथा ५. तात्पर्यार्थ" इतनी बातों को लक्ष्य में रखकर विवरण करने की जरूरत थी। अर्थ-निश्चय तात्पर्यार्थ में आ जाता है, तब प्राधार, इतिहास का सार और छन्द का नाम लक्षण टिप्पण में भी दिया जा सकता था। लेखक ने यदि उपर्युक्त मार्ग ग्रहण किया होता तो कम परिथम में और कम खर्च में इससे भी विशेष अच्छा संस्करण तैयार हुआ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org