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________________ निबन्ध-निचय : १२६ को हानिकर और पोथी-लेखकों द्वारा सूत्र के अंग बनकर मूल वस्तु को बिगाड़ने वाली होंगी। यह प्रतिवचन स्थानादिनिवेदन आदि विधि में शोभने वाली वस्तु है, जिसको मूल में प्रवेश करवा के सम्पादक ने अक्षम्य भूल की है। "लघु शान्ति" स्तव में "विजयादि जगन्मङ्गल कवच, अक्षरस्तुति, प्राम्नाय, फलश्रुति, अंतमंगल'' आदि शीर्षकों के कांटे बोकर शान्तिपाठियों का मार्ग दुर्गम बना दिया है। ऐसे सूचन अस्थानीय तथा अप्रासंगिक हैं । संशोधन : हम पहिले ही कह चुके हैं कि संशोधन की दृष्टि से यह संस्करण अच्छा है, कितनी ही प्रवाहपतित भूलों का इसमें परिमार्जन हुआ है। फिर भी पूर्व से चलती आई थोकबन्ध अशुद्धियाँ इसमें भी रह गई हैं। भीमसी माणक के संस्करण की कितनी ही भूलें महेसाना के संस्करण में सुधरी हैं। वैसे भीमसी मारणक की कतिपय भूलें महेसाना वालों ने अपनायी हैं तथा महेसाना का अनुगरण इस संस्करण के संशोधकों ने भी किया है। खास कर भाषा की कृतियाँ "पाक्षिकादि अतिचार" "सकल तीर्थ वन्दना" आदि में भीमसी माणक ने भाषाविषयक परिवर्तन कर मूल कृति में विकृति की थी। उसी रूप में महेसाना तथा अष्टांग-विवरणकार ने अपने संस्करणों में उसकी पुनरावृत्ति की है। खास तौर से ऐसी विकृतियों को प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर सुधारकर भूलों के रूप में उन्हें प्रकाशित करना चाहिये था। "अजितशान्तिस्तव" में जैसे प्राचीन टीका के आधार पर शाब्दिक परिवर्तन किया है उसी प्रकार उक्त कृतियों को इसके शुद्ध रूप में उपस्थित किया होता तो योग्य माना जाता। अजित शान्तिस्तव में किये गये परिवर्तन : "अजित शान्तिस्तव' में कितनी ही ह्रस्व, दीर्घ की भूलें सुधारी हैं यह तो ठीक, पर छन्दों के आधार से इसमें कितनी ही जगह गाथाओं का जो अंग-भंग किया है वह अक्षन्तव्य है। संशोधक ने चाहे जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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