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सूत्रों के नये नाम :
संपादक ने प्रत्येक सूत्र या सूत्रखण्ड को अपने कल्पित नाम से अलंकृत किया है । प्राकृत को प्राकृत और संस्कृत को संस्कृत नाम लगाकर अन्त में सूत्र का प्रचलित नाम दिया है । इसका कारण "एकवाक्यता" कायम रखना बताते हैं, पर हमारी मान्यतानुसार यह कथन निराधार है । प्रतिक्रमण सूत्र, सूत्रखण्ड अथवा तदुपयोगी जो संकेत नियत हैं उनके विषय में टीकाकार, संपादक या संशोधक को निराधार नये नाम लगाने का साहस करने की कुछ भी आवश्यकता न थी । यदि सूत्रगत वस्तुव्यंजक शब्द लिखने की इच्छा थी तो टिप्पणी में या टीका में वैसा कोई शब्द लिखकर पूरी कर सकते थे, पर प्रत्येक सूत्र तथा सूत्रखण्ड के गले में प्राकृत या संस्कृत नाम की नई घंटियाँ लगाने का संपादक को कोई अधिकार न था, "सात लाख, अठार पापस्थानक" जैसे लोकभाषामय आलोचना पाठों के प्राकृत तथा संस्कृत भाषा के नये नाम कितने विचित्र लगते हैं ? इसमें किस प्रकार की एकवाक्यता है यह हम समझ नहीं सकते ।
निबन्ध-निचय
'तस्स उत्तरीकरणेणं', 'अन्नत्थ ऊससिओणं' जैसे सूत्रखण्ड, जो वास्तव में 'इरियावहिया' के अंश हैं उनके नये नाम लगाकर एक प्रकार की उनमें विकृति ही उत्पन्न की है और कितने ही नये नाम तो मूल वस्तुनों को ढांकने वाले जैन शैली के बाधक बने ऐसे हैं ।
अन्तः शीर्षक तथा अन्तर्वचन :
कितने ही स्थानों में सम्पादक ने “ अन्तःशीर्षक" तथा विधिगत "प्रतिवचन" सूत्रों में दाखिल किये हैं यह भी अविचारित कार्य किया है । ऐसे प्रक्षेप कालान्तर में लेखकों के प्रज्ञान से सूत्रों के अंग बनकर मूल वस्तु को विकृत कर देते हैं कि जिसका संशोधन भी अशक्य बन जाता है ।
'वन्दनक सूत्र' तथा 'प्रभुट्टियो' आदि में दाखिल किये हुए " गुरुप्रतिवचन" "स्थाननिवेदन" आदि वातें अनजान स्वयं सीखने वालों
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