________________
१२६ :
निबन्ध-निचय
ऊपर हमने केवल "तत्त्वन्यायविभाकर" के प्रथम सूत्र पर थोड़ी टीका टिप्पणी की है। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के अन्यान्य अनेक सूत्रवाक्य दोषपूर्ण हैं और उन पर जितना भी टीका-टिप्पण किया जाय थोड़ा है। परन्तु ऐसा करने में अब कोई लाभ प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इसके लेखक आचार्य महोदय परलोक सिधार गए हैं और इनके शिष्यगण की तरफ से संशोधन होने की आशा करना निरर्थक है, इसलिए अन्य सूत्रों के ऊपर टीका-टिप्पणी करना छोड़ दिया है।
दुःख के साथ कहना पड़ता है कि श्री लब्धिसूरिजी महाराज ने इस संस्कृत ग्रन्थ के निर्माण में जितना समय लगाया उतना स्त्रियों तथा बालक बालिकाओं के पढ़ने योग्य स्तवनों-भजनों के बनाने में लगाते तो अवश्य लाभ के भागी होते।
卐
है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org