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________________ निबन्ध-निचय : १२५ "चरण" शब्द यद्यपि कहीं कहीं इसके पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है, फिर भी "चरण" शब्द चारित्र का पर्याय न होकर चारित्र सम्बन्धी क्रियाओं-आचरणों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। "मोक्ष' शब्द कर्मयुक्त होने के अर्थ में प्रसिद्ध है, “मुक्ति" शब्द भी “मोक्ष" शब्द का पर्याय अवश्य है परन्तु मोक्ष के जैसा पारिभाषिक नहीं। “मार्ग" शब्द के स्थान पर “उपाय" शब्द का लिखना भी बिल्कुल अयोग्य है। भले ही श्रद्धा संवित् और चरण मोक्ष के उपाय हों, परन्तु ये मोक्ष का मार्ग नहीं बन सकते। "मृग्यते मोक्षो अनेन इति मार्गः' अर्थात् दर्शन-ज्ञान चारित्र द्वारा मोक्ष का अन्वेषण किया जाता है और उसे प्राप्त भी किया जाता है। मनुष्य के पास कार्य के साधक उपाय होने पर भी जब तक वह उपेय पदार्थ की प्राप्ति के लिए मार्गणा नहीं करता, उपेय प्राप्त नहीं होता। इसीलिए तत्वार्थकार भगवान् उमास्वाति वाचक ने मोक्ष शब्द के आगे मार्ग शब्द रखना पसन्द किया है। इन सब बातों के उपरान्त एक विशेष खटकने वाली बात तो इस वाक्य में यह है कि "उपाय" शब्द का प्रयोग बहवचन में किया है। जैन शैली को न जानने वाला मनुष्य तो यही कहेगा कि 'श्रद्धा', “संवित्" और "चरण' ये प्रत्येक मुक्ति देने वाले उपाय हैं। परन्तु ऐसा अर्थ करना जैन सिद्धान्त से विरुद्ध माना जायगा, क्योंकि जैन-सिद्धान्त "सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान" और "सम्यक्चारित्र'' इन तीनों की सम्मिलित प्राप्ति से ही आत्मा का मोक्ष मानता है, प्रत्येक भिन्न-भिन्न से नहीं। इसो कारण तो तत्त्वार्थसूत्रकार ने "मार्ग" शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन का उपयोग किया है। इस प्रकार "तत्त्वन्यायविभाकर'' के पहले वाक्य में ही "प्रथमकवले मक्षिका. पातः" जैसा हुआ है। इस प्रथम पंक्ति की खामियों को पढ़ने से ही सारा ग्रन्थ दृष्टिगोचर करने की मेरी इच्छा हुई और सारी पुस्तक पढ़ी, जिससे ग्रन्थ की योग्यता अयोग्यता का अनुभव हुआ । (१) चरण शब्द भी संवित् की ही तरह अनेकार्थक है। इसका प्रयोग कहीं कहीं चारित्र की क्रिया के अर्थ में होता है, तो कहीं कहीं "काठक" "कलापका" दि धर्माम्नायों के अर्थ में भी प्रयुक्त हुना है। इस परिस्थिति में चारित्र जैसे सर्वसम्मत शब्द को हटाकर उसका स्थान "चरण' शब्द को देना एक प्रकार की प्रान्ति फैलाना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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