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: १८ : तत्त्वन्याय-विभाकर
कर्ता-श्री विजयलब्धि सूरि
उपर्युक्त नाम का ग्रन्थ बीसवीं शताब्दी के प्राचार्य श्री लब्धि सूरिजी ने खम्भात में रचा है। इसका रचनाकाल १६६४ और मुद्रणकाल १९६५ है। ग्रन्थ को तीन विभागों में बांटा है-प्रथम विभाग में नवतत्त्वों का संस्कृत वाक्यों में निरूपण करके सम्यक-दर्शन का वर्णन किया है। दूसरे विभाग में पांच ज्ञानों का वर्णन करके प्रमाणों का निरूपण किया है। तीसरे विभाग में चारित्र-धर्म का निरूपण करने के साथ चारित्र-सम्बन्धी क्रिया-प्रवृत्तियों का प्रतिपादन किया है।
ग्रन्थ के संस्कृत वाक्य अधिकांश में भगवान् उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों में शाब्दिक परिवर्तन करके तय्यार किये गए हैं। उदाहरण स्वरूप “सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्र को परिवर्तित करके “सम्यक् श्रद्धा-संविच्चरणानि मुक्त्युपाया:" यह वाक्य रचा है। मेरी समझ में सैद्धान्तिक बातों को इस प्रकार बदलने में कैसी भूलें होती हैं, इस बात पर लेखक ने तनिक भी विचार नहीं किया। भगवान् वाचकजी के प्रथम सूत्र का अन्तिम शब्द "मोक्षमार्गः" यह एक वचनान्त है, तब विभाकर के कर्ता ने इसके स्थान पर "मुक्त्युपायाः" इस प्रकार मोक्ष के स्थान पर मुक्ति तथा मार्ग के स्थान पर बहुवचनान्त "उपायाः' शब्द लिखा है। वास्तव में यह परिवर्तन बहुत ही भद्दा और अनर्थकारक हा है। दर्शन शब्द के स्थान पर श्रद्धा शब्द लिखकर लेखक ने एक सर्वव्यापक अर्थवाची शब्द को हटाकर एकदेशीय अभिलाषा वाचक "श्रद्धा' शब्द
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