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निबन्ध-निचय
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यह प्राचार्य के कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती। शास्त्र मे साधुओं का विहार मन्दिर और मूर्तियों के दर्शन के लिए नहीं बताया, किन्तु अपना संयम निर्मल रखने के लिए साधु विहार करते हैं। भावी आचार्य के लिए देशदर्शनार्थ भी विहार करने की आज्ञा दी है, बाकी सर्वसाधारण के लिए तीर्थयात्रा के लिए अथवा मूर्तियों के दर्शनार्थ इधर-उधर भ्रमण करना साधुओं के लिए निषिद्ध है। इस परिस्थिति में दर्शनशुद्धि और धर्मविस्तार की बातें करने वाले साधु जैन सिद्धान्तों के अनभिज्ञ मालूम होते हैं। सत्रहवीं शताब्दी के लेखक शंख, शतक प्रमुख श्रमणोपासकों द्वारा भक्ति से बनाए हुए जिनचैत्यों की बात करके पढ़ने वालों को उल्लू बनाना चाहते थे, परन्तु ऐसा करते हुए वे स्वयं अज्ञानियों की कोटि में पहुंच रहे हैं, इस बात का उन्हें पता तक नहीं लगा।
उपसंहार :
प्रतिमाधिकार दो के सम्बन्ध में हमने जो कुछ लिखा है, वह हमारे खुद के लिए भी सन्तोषजनक नहीं, खेदजनक है। परन्तु इसके सम्बन्ध में लिखने की खास आवश्यकता ज्ञात हुई। क्योंकि हमने ज्यों-ज्यों प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीनकालीन जैन साहित्य का अवलोकन किया त्यों-त्यों धीरे-धीरे ज्ञात हा कि मध्यकालीन और अर्वाचीन जैन साहित्य में अनेक प्रकार की विकृतियां हो गई हैं। कई ग्रन्थ तो ऐसे बने हैं जो जैन आगमों के साथ मेल ही नहीं रखते। कई ग्रन्थों में अर्वाचीनकालीन पद्धतियों को घुसेड़कर उन कृतियों को पौराणिक पद्धतियां बना दिया है। कई ग्रन्थ प्रकरणों में अन्यान्य पाठों का प्रक्षेप निष्कासन करके उनको मूल विषय से दूर पहुंचा दिया है, और यह पद्धति आज तक प्रचलित है। ऐसा हमारे जानने में आया है, अपनी मान्यताओं को प्रामाणिक ठहराने के लिए प्रामाणिक पुरुषों के रचे हुए साहित्य में इस प्रकार विकृतियां उत्पन्न करना समझदारी नहीं है। फिर भी इस प्रकार के कार्य सैकड़ों वर्षों से होते आ रहे हैं। इस परिस्थिति को जानकर यह लेख लिखना पड़ा है। प्राशा है, गच्छ मतों के हिमायती महानुभाव अब से इस प्रकार की
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