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________________ १२० : निबन्ध-निमय ग्रन्थ में लिखा है। फिर भी प्राकृत भाषा के ऊपर से विद्वान् पाठक समझ ही जाता है कि यह पाठ वास्तव में सूत्र का नहीं, लेखक के अपने घर का है। ... अब हम इस ग्रन्थ का एक नकली पाठ देकर इस अवलोकन को पूरा करेंगे। जिनप्रतिमाधिकार के १४१वें पत्र में लेखक ने व्यवहार-छेद ग्रन्थ के नाम से एक पाठ दिया है जो नीचे उद्धृत किया जाता है __ “साहू वंदित्ता पूछंति-कत्थ गंतव्वं सिआ, तेणुत्तं अमुगदेसे-संति तत्थ चेइग्राणि जेहिंतो दंससोहिन विज्जति, कहं च तेहितो सणसोही पूअं च दछु जगबंधवाणं ? सट्ठाणं चेइएसु-जिणपडिमाणं न्हाण-विलेवरणाइदाणं-च दळूणं सेहस्स धम्मो वित्थरेई, चेइग्राइं संखसयगप्पमुहेहि समणोवासगेहि भत्तीइ जाइं निम्मिग्राइं'-व्यवहारछेद ग्रन्थे । साधु आचार्य को वन्दना कर पूछते हैं-विहार कर कहां जाना होगा? आचार्य ने कहा-अमुक देश की तरफ। वहाँ जिनचैत्य हैं, जिनचैत्यों से दर्शनशुद्धि होगी। उनसे दर्शनशुद्धि कैसे होगी? प्राचार्य ने कहातीर्थङ्करों की पूजा देखकर श्रावकों का जिनमन्दिरों में जिनप्रतिमानों का स्नान विलेपनादि करना देखकर नवदीक्षित शिप्य का धर्म विस्तृत होता है। चैत्य-शंख, शतक आदि श्रावकों द्वारा भक्ति से जो बनाए गये हैं, उनके दर्शनादि से धर्मश्रद्धा बढ़ती है। लेखक साधुओं द्वारा विहार-क्षेत्र पूछता है और प्राचार्य उसका उत्तर देते हैं, कि अमुक देश में विहार होगा। जहाँ जिनचैत्य बहुत हैं, दर्शनशुद्धि होगी। साधु पूछते हैं-महाराज, उन चैत्यों से दर्शनशुद्धि कैसे होगी ? प्राचार्य कहते हैं-जगत् के बन्धु जिनभगवन्त की पूजा देखकर श्रावकों द्वारा जिनचैत्यों में जिनप्रतिमाओं का स्नान विलेपादि होता देख कर नव-शैक्ष का धर्म बढ़ता है। क्योंकि वे चैत्य, शंख, शतक प्रमल श्रावकों के भक्ति से बनाये हुए हैं। जिनप्रतिमाधिकार के कर्ता ने इस पाठ की जो योजना की है, वह आधुनिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर की है, अन्यथा वहां मन्दिर हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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