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निबन्ध-निचय
चूणियों की जो प्राकृत भाषा होती है उसके साथ उक्त पाठ की प्राकृत का कोई मेल नहीं मिलता। इससे निश्चित है कि व्यवहार-भाष्य की चूणि का नाम लेकर लेखक ने इस प्राकृत पाठ के सम्बन्ध में असत्य भाषण किया है।
उपर्युक्त पाठ में एक एक शब्द खरतरगच्छ वालों का अपना पारिभाषिक शब्द है। “विधिचेइय' अर्थात् “विधिचैत्य" के सम्बन्ध में जिनवल्लभ गणि, जिनदत्त सूरि आदि ने जितना लिखा है उतना अन्य गच्छ के किसी भी विद्वान् ने नहीं लिखा। उस समय में खरतरगच्छ के धावकों की तरफ से जो जो जिनमन्दिर बनते थे उन सब को वे "विधिचैत्य' कहते थे और विधि-चैत्यों में बर्तन के लिए जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनपति सूरि आदि ने अनेक नियम बना डाले थे और उन नियमों के अनुसार ही खरतरगच्छ के अनुयायी चलते थे। खरतरगच्छ के आचार्यों की मान्यता थी कि जिनायतन आगम के अनुसार न्यायाजित धन द्वारा श्रावकों को बनवाला चाहिए, स्वपरहितार्थ और मोक्षपद के साधननिमित्त जो आगम विधि से बनाया गया हो उसी को “मायतन'' कहना चाहिए । आयतन में इस प्रकार की विधिप्रवृत्ति होती है--
"उसमें उत्सूत्र-भाषक लोगों का चलाया हुया क्रम चालू नहीं रहता। वहां रात्रि में जिनबिम्बों का स्नान नहीं होता, रात्रि में प्रतिष्ठा नहीं होती, जिनचैत्य साधुओं के सुपुर्द नहीं किये जाते । जिनचैत्यों की हद में बने हुए मठ आदि में साधु.साध्वी का निवास नहीं होता, रात्रि के समय में स्त्री लोगों का मन्दिर में प्रवेश नहीं होता, जाति, कुल आदि का दुराग्रह नहीं होता, जिनघर के अन्दर श्रावक को ताम्बूल नहीं दिया जाता, न खाया जाता। वहां विकथा नहीं होती, झगड़ा नहीं होता, घरकार्य सम्बन्धी बातें नहीं होती, मन्दिर में रात्रि जागरण नहीं होता। पुरुष भी मन्दिर में इंडियों से नहीं खेलते, जल-क्रीड़ा नहीं होती, शृङ्गार तमाशा आदि नहीं होते। देवों के लिए भी हिंडोले नहीं होते, ग्रहण की रश्म नहीं होती, संक्रान्ति नहीं मानी
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