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निबन्ध-निचय
कारिगं तं प्राययणं भण्णइ, आययणे पुरण इमो विही पवत्तइ-न उस्सुत्तजणवक्कमो साया, न रयणीए जिणबिंबन्हाणं, न पइट्ठा, न साहूण सम्मत्तं, न चेइहरमज्झे मठाइसु सुसाहुसाहुणीणं निवासो, न रत्तीए इत्थिजणप्पवेसो, न जाई-कुल-अइसग्गहो, न सावयाणं जिणहरस्स मज्झे तंबोल-दाण-भक्खरणं, न विगहा, न कलहो, न घरचिता, न रयणीए विलासिणीनट्ट, न रत्तिजागरणं, न लगुडरासदाणं, पुरिसाणं पि न जलकीडा-सिंगार-हेडगाई, न हिंडोलगो देवयाणं पि, न गहणं, न संकंती, न माहमाला, न पाण-भोअरण-मुत्तपुरीसनिट्ठवरण-न्हाण-पाय-ठवणाई, न हास-कील-करणं, न हुड्डा, न जुद्धं, न जूअं, न देवदव्वभक्खणं, न परुप्परमच्छरो, न सावयपइट्टाकरणं, न पहरणजुत्तस्स सावयजणस्स पविसणं, न अणुचिग्र-गीअ-वाईअ-नट्ट च, न उम्मग्गदेसणा करणं, उम्मग्गठिाणं वंदणाइ करणं, न दुट्ठ जपणं, अन्नपि गडइरिअपवाहपडिअं आगम-आयरण-विरुद्धं दोस-वड्डणं गुण-घायणं जत्थ न कीरइ तं प्राययरणं गुरगवुड्किरं तित्थयर-गगहरमयं सग्गापवग्गजणयं अनाययणं नारण-दसण-चरण-गुणघायणं ठाणं मुक्खत्थि-सुसाहुसाहुणि-सावय-साविभाजणवज्जणिज्जं विसुद्धभावेणं, न पुण रागदोसेणं । व्यवहारचूर्णी ।
अर्थ-लेखक ने उपर्युक्त पाठ व्यवहारभाष्यचूणि का होना बताया है। व्यवहार-भाष्य और उसकी टीका भी हमने पढ़ी हैभाष्य में "निरसकडमनिस्सकड-चेइए सहि थुई तिण्णि ।
वेलं व चेइयागि व, नाउं इक्किकिया वावि ॥"
यह गाथा अवश्य आती है और इस प्रसंग पर निश्राकृत अनिश्राकृत मंगलचैत्य शाश्वत चैत्य आदि का संक्षेप में टीककार ने परिचय बताया है, परन्तु आयतन अनायतन के सम्बन्ध में कोई निरूपण नहीं किया। व्यवहारचूरिण हमारे पास नहीं है, न हमने पढ़ी है। फिर भी चूरिण में आयतन अनायतन के सम्बन्ध में इतना विस्तृत विवरण होता तो टीकाकार प्राचार्य क्षेमकीर्ति चूणि से भी आयतन की टीका अधिक विस्तार से करते, परन्तु वैसा कुछ नहीं किया। दूसरी बात यह भी है कि प्राचीन
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