________________
निबन्ध-निचय
: ११३
प्रक्षेप कर दिया हो तो बात अलग है। आज तक हमने जो जैन-साहित्य का अवलोकन किया है, उसमें कहीं भी उक्त हकीकत दृष्टिगोचर नहीं हुई। हाँ, पं० वीरविजयजी ने वेदनीय कर्म की पूजा में उक्त हकीकत अवश्य लिखी है, परन्तु उसका मूलाधार आज दिन तक कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ है ।
____ इसमें पवन की लहरों से चलते हुए मोतियों के टकराने से मधुर नाद उत्पन्न होता है यह लिखा है। तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि सर्वार्थसिद्ध में इतनी जोरों की हवा चलती होगी क्या ? जो मण से लगाकर ३२ मण तक के वजन वाले मोतियों को हिला डाले और वे बिचले मोती के आस्फालन से मधुर नाद उत्पन्न करें ? शास्त्रों में तो सामान्य रूप से विमानों को घनोदधि, घनवात, अवकाशान्तर प्रतिष्ठित लिखा है और सर्वार्थसिद्ध को प्राकाशप्रतिष्ठित कहा है। तब वहाँ इतना जोरों का पवन कहां से आता होगा, जो मोतियों को टकराकर मधुर नांद उत्पन्न कर सर्वार्थसिद्ध में आनन्द उत्पन्न करता होगा। शास्त्रज्ञ जैन विद्वानों को इस बात पर गहरा विचार करना चाहिये। हमारी राय मैं तो ६४ मरण के मोती वाली बात अनागमिक है ।
"जिनप्रतिमाधिकार" के ६१वें पत्र में साधु-साध्वी को स्तव, स्तुति पूर्वक त्रैकालिक चैत्यवन्दन न करने से प्रथम वार उपवास, दूसरी बार छेद, तीसरी बार उपस्थापना का प्रायश्चित्त लिखा है और प्रविधि से चैत्यवन्दन करने पर पारांचित प्रायश्चित्त का विधान किया है। इस प्रायश्चित्तविधान का मूल पाठ नीचे लिखते हैं
___'जे केइ भिक्ख वा भिक्खणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे दिक्खादि अयहाप्पभतिइग्रो अणुदिअहं जावजीवाभिग्गहेण सत्थे वीसत्थे भत्तिनिब्भरे जजु(हु)त्त विहीए सुत्तत्थमणुसरमाणे अणण्णमाणसेगग्गचित्ते तग्गयमारणससुहज्झवसाए थय-थुईहिं न ते कालिअं चेइयाइं वंदिज्जा तस्स णं एगाए वाराए खवणं पायच्छित्तं उवइसिज्जा, बीपाए छेअं, तइआए उवट्ठावणं, अविहीए चेइआइं वंदेतो पारंचिअं, अविहीए वंदेमारणे अन्नेसि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org