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________________ ११२ : निबन्ध-निचय पहले की मान्यता चली आती है कि पौषध पर्व, अपर्व सभी दिनों में किया जा सकता है । तब खरतरगच्छीय मान्यता के अनुसार पौषध अष्टमी, चतुर्दशी पूर्णिमा आदि पर्व तिथियों में ही किया जाता है, अन्य तिथियों में नहीं । इस परिस्थिति में "जिनप्रतिमाधिकार" का कर्त्ता खरतरगच्छीय होना चाहिए या तपागच्छीय इसका निर्णय पाठकगण स्वयं कर लेंगे । "जिनप्रतिमाधिकार" के ८५वें पत्र में लेखक ने सर्वार्थसिद्ध विमान में ६४ मन का मोती एक, ३२ मन के चार इत्यादि मोतियों का वर्णन लिखा है और आगे जाकर बताया है कि पवन की लहर से पृथक्-पृथक् होकर ये मोती एक साथ मुख्य मोती से टकराते हैं तब वह विमान मधुर स्वर के नाद से भर जाता है और उस विमान में रहने वाले देव उस नाद में लीन होकर बड़े आनन्द के साथ ३३ सागरोपम का श्रायुष्य व्यतीत करते हैं । इस प्रकार की हकीकत "सिद्धप्राभृत" प्रकीर्णक के नाम से लिखी गई है, वह मूल पाठ नीचे दिया जाता है ---- " सर्वार्थसिद्ध विमाने ? मुक्ताफलं ६४ भरण प्रमाणं वलयाकारेणं, ४ मुक्ताफलानि ३२ मरण प्रमाणानि, पुनरपि ८ मुक्ताफलानि १६ मण प्रमाणानि, पुनरपि ४र्थ वलये मरण प्रमाणानि १६, पुनरपि ५म वलये ३२ मुक्ताफलानि ४ मरण प्रमाणानि, पुनरपि ६ष्ठ वलये ६४ मुक्ताफलानि २ मण प्रमारणानि पुनः ७म वलये १२८ मुक्ताफलानि १ मरण प्रमाणानि, यदा वातलहर्या पृथग्भूत्वा समकालं यथोक्तरीत्या मुख्य मुक्ताफले ग्रास्फालयंति तदा तद्विमानं मधुरस्वरनादाद्वैतमयं जायते, तहिमानवासिदेवास्तनादलीनाः अतीव सुखेन ३३ सागरायुषो गमयति" इति सिद्धप्राभृत प्रकीर्णक || " , लेखक ने मुक्ताफलों वाली बात "सिद्धप्राभृत" में से ली है, ऐसा अन्त में सूचित किया है । परन्तु हमने "सिद्धप्राभृत" में तो क्या उसकी टीका में भी उक्त मुक्ताफलों का सूचन तक नहीं देखा । जिन प्रतिमाधिकार लेखक ने उक्त हकीकत का अपने पास के "सिद्धप्राभूत" की टीका में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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