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________________ निबन्ध-निचय भवन्ति तो तिलक्खगुणं, तम्हा सव्वहा सव्वपयारेहिं णं आयरिअ महत्तरपवत्तणीहिं अखलिग्रसीलेहिं भव्वेअव्वं''-महानिशीथ ५ अ० ॥ अर्थात्-"गणधर श्री गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैंहे भगवन् ! आचार्यो महत्तरों प्रवर्तनी को कितना प्रायश्चित्त हो ? एक साधु के लिए जो प्रायश्चित्त होता है, वही प्राचार्य, महत्तर और प्रवर्तनी इन तीनों के लिए १७ गुना प्रायश्चित्त होता है। यदि आचार्यादि तीन शील व्रत में दोष लगाते हैं, तो साधु से तीन लाख गुना प्रायश्चित्त होता है। इस वास्ते सर्वथा और सर्व प्रकारों से प्राचार्य, महत्तरा और प्रवर्तिनी को अस्खलितशील होना चाहिए। उपर्युक्त प्रायश्चित्त विषयक महानिशीथ का पाठ महानिशीथ के पंचम अध्ययन में नहीं आता। महानिशीथ के सातवें आठवें अध्ययनों में कुछ प्रायश्चित्त अवश्य मिलते हैं, उन्हीं में उक्त प्रायश्चित्त है। शेष सभी अध्ययनों में उपदेश और साधु-साध्वियों के दृष्टान्त भरे पड़े हैं, प्रायश्चित्त नहीं। जिनप्रतिमाधिकार नं० २ के पत्र ७६ में लेखक ने "पोषध" शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है 'पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवासोऽवस्थानं पौषधोपवासः एषो द्वन्द्वः, तैर्युक्ता इति गम्यं चाउद्दसेत्यादि ॥" अर्थात्-‘पौषध' पर्वदिन के अनुष्ठान का नाम है, उसमें रहना उसका नाम है “पौषधोपवास” यहाँ पदों का आपस में द्वन्द्व समास समझना चाहिए । यहाँ “पौषधोपवास” चतुर्दशी, अष्टमी आदि में होता है इत्यादि । जिनप्रतिमाधिकार का लेखक यदि "तपागच्छीय" होता तो “पौषधको' पर्वदिन का अनुष्ठान और चतुर्दशी अष्टमी आदि में करने का अनुष्ठान नहीं लिखता, क्योंकि तपागच्छ में लगभग ५०० वर्षों से भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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