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________________ १०८ : निबन्ध-निचय इसका परिणाम यह आया कि जहाँ खरतरगच्छ के साधु-साध्वी विचरते थे, उस मारवाड़ के प्रदेश की तरफ तपागच्छ के साधुओं को गर्म जल मिलना दुर्लभ हो गया और जल सम्बन्धी कष्ट को ध्यान में लेकर तपागच्छ के प्राचार्य श्री सोमप्रभ सूरिजी को अपने ग़च्छ के साधु साध्वियों को मारवाड़ में विहार न करने की आज्ञा निकालनी पड़ी। कई वर्षों तक तपागच्छ के साधु साध्वियों का विहार मारवाड़ में नहीं हुअा। इस प्रकार की पानी सम्बन्धी परिस्थिति को ध्यान में रखकर पाठकगण उपर्युक्त फिकरा पढ़ेंगे तो सामान्य आभास यही मिलेगा कि इसका लेखक कोई तपागच्छीय व्यक्ति है, परन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। लेखक तपागच्छीय न होने पर भी तपागच्छीय का रूप धारण कर अंचल, खरतर आदि गच्छों के विपरीत लिख रहा है। इसका कारण मात्र यह है कि इसमें कतिपय खरतरगच्छीय मान्यताओं को प्रामाणिक मनाने के भाव से जो कल्पित शास्त्रपाठ प्रमाण के रूप में दिये हैं वे सत्य मान लिये जाएँ। परन्तु होशियारी करते हुए भी लेखक के हृदय के उद्गार कहीं कहीं प्रकट हो ही जाते हैं। इस प्रासुक जल सम्बन्धी प्रकरण में ही देखिए। शर्करा द्वारा अचित्त किया हुआ जल और काथ-कसेलक इन दो पानियों के मुकाबिले में निम्न प्रकार से अपना आशय व्यक्त करते हैं "सितापानीयं त्वल्पसितामध्यक्षेपणेन कल्पते किंतु बहुसितास्वादसंभवे एव तच्च जनैः पित्तोपशांतये बहुसितायोगेनैवं विधीयते अन्यथा पितोपशमनकार्याऽसिद्धेः, काथकसेल्लकादि नीरं त्वल्पचूर्णेनाऽपि क्रियते जनैः ॥ भावेन बाहुल्येन क्रियते अतो न तयोः सादृश्यं ॥" ऊपर के फिकरे में लेखक ने शर्करा जल और काथ कसेल्लादि जलों में शर्करा जल को छोड़कर काथ कसेल्लकादि जल को सुलभ और स्वाभाविक मानकर इसको महत्त्व दिया है। परन्तु यह भावना खरतरगच्छ के अनुयायी की ही हो सकती है, तपागच्छ के अनुयायी की नहीं, क्योंकि तपागच्छ के आचार्य काथ-कसेल्लाकादि जल को प्रथम तो प्रासुक मानने में ही सशंक थे, क्योंकि काथ कसेल्लाकादि चूर्णों की अल्प मात्रा से भी जल का वर्ण बदल सकता है। परन्तु इतनी अल्प मात्रा जल को प्रासुक करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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