________________
१०६ :
निबन्ध-निचय
तानि पानीयानि इति प्ररूपयंति परं ते वितथप्ररूपका अश्राव्यवच नाश्च ज्ञातव्याः। दशवकालिक-श्रीकल्पादौ स्थविरकल्पिकानां कांजिकनीरविधेः स्पष्टमेव सुतरां भरणनात् ।'
ऊपर का कथन तपागच्छ वालों की मान्यता को लक्ष्य में लेकर किया गया है। विक्रम की १४वीं शताब्दी में तपागच्छ और खरतरगच्छ के बीच साधुनों के ग्राह्य-पेय अचित्तजलों के सम्बन्ध में बड़ा संघर्ष चल पड़ा था। सूत्रोक्त धावन जल धीरे धीरे अदृष्ट हो गए थे। उस समय तपागच्छ के प्राचार्यों का उपदेश था कि शास्त्रोक्त धावन जल मिल जाये तो लेना अच्छा ही है। परन्तु आजकल इस प्रकार के प्रासुक जल प्रायः दुर्लभ हो गए हैं। अतः अचित्तभोजी श्रावक श्राविकाओं को उष्ण किया हुआ ही जल पीना चाहिए और साधुओं को भी शुद्ध उष्ण जल ही देना चाहिए। इसके सामने खरतरगच्छ वालों का कहना यह था कि पानी उबालने में छ: जीवनिकाय का प्रारम्भ होता है। अतः साधु को इस प्रकार का उपदेश न देना चाहिए और न जैन श्रावक को अपने लिये भी जल उबालने का प्रारम्भ करना चाहिए। कत्थे का चूर्ण तथा त्रिफलादि का चूर्ण जल में डालने से जल अचित्त हो जाता है, तो अग्निकाय का प्रारम्भ कर प्रसादि छः काय की विराधना क्यों करना चाहिए ? “तपोटमतकुट्टन" प्रकरण में प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने उक्त प्रकार की युक्तियों से गर्म पानी का जोरों से खण्डन किया है।
हमार। यह कथन कोई निराधार न समझ ले इसलिए हम यहाँ नीचे "तपोटमतकुट्टन" तथा "प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक" नामक दो ग्रन्थों के प्रमाण उद्धृत करते हैं । "तपोटमतकुट्टन' में प्राचार्य जिनप्रभ सूरि लिखते हैं
"वर्णान्तरादिप्राप्तं सत्, प्रासुकं यत् श्रुते स्मृतम् । न्यवारि वारि शिशिरं, तदपि व्रतिगेहिनाम् ॥३२॥ अप्कायमात्रहिंसोत्थं, निरस्य प्रासुकोदकम् । प्रारूपि गृहिणामुष्णं, वा: षटकायोपमर्दजम् ।।३३॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org