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निबन्ध-निचय
में हुआ था। आर्यरक्षितजी के अनुयायियों ने “दतांणी" का नाम "दंताणी" यह अपने लेखों में दिया है। प्रस्तुत संग्रह अंचलगच्छ, लुकागच्छ और कडुअागच्छ इन तीन गच्छों की मान्यता का खंडन करने वाला होने से इस ग्रन्थ का लेखक उक्त तीन सम्प्रदायों का अनुयायी नहीं है, यह निश्चित मान लेना चाहिए ।
संग्रहकार ने एक स्थान पर श्रावक द्वारा प्रतिष्ठा कराने का खंडन किया है और लिखा है कि श्रावक प्रतिष्ठा नहीं करा सकता। पौर्ण मिक गच्छ वालों का मन्तव्य है कि जिन-प्रतिष्ठा द्रव्यस्तव होने के कारण साधु नहीं कर सकता; यह कर्त्तव्य श्रावक का है, परन्तु प्रस्तुत प्रतिमाधिकार में श्रावक द्वारा प्रतिष्ठा कराने का खण्डन किया है। इससे स्पष्ट होता है कि "प्रतिमाधिकार" ग्रन्थ पौर्णमीयक विद्वान् की भी कृति नहीं है। अब अब रहे तपागच्छ और खरतरगच्छ, इन दो में से किस गच्छ के अनुयायो की यह कृति होनी चाहिए। इसका निर्णय इसमें लिखे हुए विषयों को परीक्षा करने से ही हो सकता है। प्रारम्भ में लेखक ने जिन विषयों का नामोल्लेख किया है, उनके अतिरिक्त अनेक बातों की चर्चा इसमें भरी पड़ी हैं और प्रमाण के रूप में ग्रन्थों के पाठ भी अनेक दिये हैं। इन पाठों की जांच-पड़ताल से लेखक का निर्णय होना कोई बड़ी बात नहीं है ।
"जिनप्रतिमाधिकार नं० २" के पत्र ३५ में निम्न प्रकार को अचलगच्छ के प्राचार्यों की पट्टपरम्परा दी है
"जमाल्यन्वये १२१४, आर्य रक्षित १, जयसिंह २, धर्मघोष ३, महेन्द्रसिंह ४, सिंहप्रभ ५, अजितसिंह ६, देवेन्द्रसिंह ७, धर्मप्रभ ८, सिंहतिलक ६, महेन्द्रप्रभ १०, मेरुतुंग ११, जयकीर्ति १२, जयकेसरी १३; स्तनिकगणनीयाः ॥"
उक्त पट्टावली के प्राचार्यों को जमालि के अन्वय में लिखने के कारण अन्त में "स्तनिक गणनीयाः" ये शब्द लिखने पड़े हैं, जिनका अर्थ हैइनको पांचलिक गिनना चाहिए। अन्तिम आचार्य जयकेसरी का स्वर्गवास
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