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निबन्ध-निचय
द्वितीय प्रतिमाधिकार का विषय भी मुख्यतः मूर्ति-पूजा सम्बन्धी ही है, फिर भी इसमें उसके अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों की चर्चा की गई है। इस प्रतिमाधिकार के लेखक ने अपना नाम कहीं भी सूचित नहीं किया है और इसमें दिये हुए सूत्र पाठ भी कई कल्पित मालूम हुए हैं। इस कारण से हम पहिले द्वितीय प्रतिमाधिकार के सम्बन्ध में ही कुछ लिखना उचित समझते हैं।
प्रतिमाधिकार नं० २ के लेखक ने अपने ग्रन्थ में कहीं भी अपना नाम निर्देश नहीं किया। फिर भी इसके पढ़ने से इतना निश्चित हो सकता है कि यह सन्दर्भ वि० की १७वीं शती के पूर्व का नहीं है।
यद्यपि इस ग्रन्थ का नाम "जिनप्रतिमाधिकार” है, फिर भी इसमें अनेक बातों की चर्चा की है और उन्हें प्रमाणित करने के लिए अनेक सूत्रग्रन्थों के पाठ दिये हैं। ग्रन्थकार ने जिन-जिन बातों की इस ग्रन्थ में चर्चा की है, उनकी सूचना ग्रन्थ के प्रारम्भ में नीचे लिखे शब्दों में दी है
"श्रीजिनपूजा १, प्रतिमा २, प्रासाद ३, साधु-स्थापना ४, दान ५, सार्मिक-वात्सल्य ६, पुस्तक-पूजा ७, श्री पर्युषण पर्व ८, पारात्रिक ६, मंगल प्रदीप १०, प्रतिक्रमणाद्यक्षराणि ११, श्री मूल सिद्धान्तोक्तानि लिख्यन्ते ॥"
उक्त प्रकार से ग्रन्थकार ने ग्यारह बातों को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के पाठ लिखने की प्रतिज्ञा की है। फिर भी इन बातों के उपरान्त भी अनेक विषयों की चर्चा की है, परन्तु लेखक स्वयं एक भेदी-लेखक रहना चाहते हैं ।'' इसका कारण यह मालूम होता है कि इस ग्रन्थ में अनेक प्रमाण ऐसे दिये गये हैं जो बताए हए सूत्रों में नहीं हैं। केवल कल्पित प्रमाण तैयार करके इस संग्रह में लिख दिये हैं। लिखने वाले ने किसी प्रकार से स्वयं खुल्ला न पड़ जाय इस बात की पूरी सावधानी रखी है। पढ़ने बालों को आभास यही हो कि लेखक कोई तपागच्छीय साधु है। लोगों की दृष्टि में अपनी इस होशियारी को सच्चा ठहराने के लिए प्रचित्त जल प्रादि की चर्चा में तपागच्छ के पक्षकार के रूप में खरतर
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