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________________ निबन्ध-निचय नं० ३११ । इनमें से पहले प्रतिमाधिकार के पत्र १६५ हैं तब दूसरे के पत्र १५५ हैं। पहले ग्रन्थ की श्लोक संख्या १२००० से भी अधिक है, तब दूसरे प्रतिमाधिकार की श्लोक संख्या ७००० के आसपास है। पहले ग्रन्थ की प्रति विक्रम संवत् १५८७ में लिखी हुई प्राचीन प्रति के ऊपर से हमने सं० १९६४ में लिखवायो है, तब दूसरे प्रतिमाधिकार की प्रति पूज्य पन्यासजी महाराज श्री सिद्धिविजयजी (आचार्य विजयसिद्धि सूरिजी महाराज ) द्वारा जोधपुर के एक यतिजी के भंडार की प्रति के ऊपर से सं० १९६५ में एक संत द्वारा लिखवायी हुई है। पहले प्रतिमाधिकार में ५७१ कुल अधिकार हैं, जो सब के सब जिन प्रतिमापूजा से सम्बन्ध रखते हैं। इस प्रतिमाधिकार का लेखक कोई पश्चात्-कृत जैन श्रावक था, जो निम्नलिखित श्लोक से जाना जाता है "पश्चात् कृतं द्रव्यलिंगं, रामेण हि धर्मार्थिना । तेनोद्धृतमिदं शास्त्रं, सर्वज्ञोक्तं निरन्तरम् ॥१॥' इस श्लोक में लेखक ने स्वयं अपने को पश्चात्कृत कहा है और अपना नाम 'राम' बताया है। खम्भात की प्रति हमने स्वयं देखी है। इसके अन्त में लेखक की पुष्पिका निम्न प्रकार से है "श्री संवत् १५८७ वर्षे अद्येह श्रीस्तम्भतीर्थ श्रीउसवंसीय सोनी सोमकरी, सो 'सललित' सो सिंघराज लिखापितं । लोकानां भव्यानां बोधिलाभाय । शोध्यं तदेतद्बुधैः ।।" ऊपर की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ की प्रथम प्रति कर्ता श्री राम ने स्वयं लिखाई है, इसीलिए विद्वानों को इसके संशोधन की प्रार्थना की गई है। प्रथम प्रतिमाधिकार मूर्ति-पूजा की सिद्धि में लिखा गया हैं। अतः इसकी चर्चा फिर कभी की जायगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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