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(३) श्री शत्रुञ्जय माहात्म्य :
वर्तमान "शत्रुञ्जय - माहात्म्य" के उपोद्घात में राजगच्छ - विभूषरण श्री धनेश्वर सूरि के मुख से कहलाया है कि " वल्लभी के राजा शिलादित्य के प्राग्रह से प्राचार्य धनेश्वर सूरि ने पूर्व ग्रन्थ के आधार से विक्रम सं० ४७७ मैं इस संक्षिप्त "शत्रुञ्जय - माहात्म्य" की रचना की ।
"शत्रुञ्जय माहात्म्य' के उपर्युक्त कथनों पर हमें कुछ विचार करना पड़ेगा । प्रथम तो विक्रम संवत् ४७७ में राजगच्छ का अस्तित्त्व होने में कोई प्रमारण नहीं है, दूसरा उस समय में धनेश्वर सूरि नामक आचार्यं हुए थे ऐसा किसी भी ग्रन्थान्तर से प्रमाणित नहीं होता । इस दशा में "शत्रुञ्जय माहात्म्य" के उक्त कथनों पर कहाँ तक विश्वास किया जा सकता है ? इस बात का निर्णय पाठक स्वयं करलें, इसके अतिरिक्त उस समय में शीलादित्य के जैन होने में कोई प्रमाण नहीं मिलता । वल्लभी के उपलब्ध ताम्रपत्रों और शिलालेखों के पढ़ने से वल्लभी के शासक कुल तीन शीलादित्यों का पता चलता है, जो सभी जैनेतर धर्मों के अनुयायी थे । इस दशा में शीलादित्य के अनुरोध से धनेश्वर सूरि द्वारा "शत्रुञ्जयमाहात्म्य" की रचना होने की बात कहाँ तक ठीक हो सकती है, इस बात पर भी पाठक - गरण विचार करेंगे तो असलियत समझ में आ जाएगी ।
प्रस्तुत "शत्रुञ्जय माहात्म्य" में इसके उद्धार करने वालों की नामावलि दी गई है, जिसमें अन्तिम नाम " समराशाह" का मिलता है । समराशाह का सत्ता समय विक्रम की १४वीं शताब्दी है, तब विक्रम की पाँचवी शताब्दी के माने जाने वाले धनेश्वर सूरि की कृति “शत्रुञ्जयमाहात्म्य" में यह नाम आना इस ग्रन्थ की नवीनता प्रमाणित करता है या नहीं, इस बात पर भी विचारक सोचेंगे तो समस्या पर अवश्य प्रकाश पड़ेगा। इसके अतिरिक्त इसमें अनेक अन्तर प्रमाण ऐसे मिलते हैं, जिनसे पर्याप्त रूप में यह बात सिद्ध हो जाती है कि प्रस्तुत "शत्रुञ्जयमाहात्म्य" किसी चैत्यवासी विद्वान् की कृति है, जो शिथिलाचारी श्रमणों की तरफदारी करके उनके पालन-पोषण का समर्थन करता है । यदि यह कृति किसी सुविहित आचार्य की होती तो इसमें लिंगावशेष यतियों का इतना पक्षपात नहीं किया जाता ।
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