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निबन्ध-निचय
सामने मूर्तिमती हो गई। इसका विशेष विवरण प्रमाणों के साथ एक स्वतन्त्र लेख में दिया है। पाठक "महानिशीध की परीक्षा" प्रबन्ध पढ़ें।
(२) संबोध-प्रकरण :
“संबोध-प्रकरण" एक संग्रह ग्रन्थ है। यह प्रकरण हरिभद्र सूरि कृत माना जाता है। इसका सम्पादन प्रकाशन करने वालों ने भी इसे हरिभद्र सूरि की कृति माना है, पर वास्तव में यह बात नहीं है। “संबोधप्रकरण" प्राचीन मध्यकालीन तथा अर्वाचीन अनेक ग्रन्थों की गाथाओं का एक "बृहत्संग्रह' है। संग्रहकार ने अनेक गाथाएँ तो दो दो बार लिखकर ग्रन्थ का कलेवर बढ़ाया है। "धर्मरत्न, चैत्यवन्दन महाभाष्य" आदि मध्यकालीन ग्रन्थों की गाथाओं की इसमें खासी भरमार है। अर्वाचीनत्व की दृष्टि से लुकामत की उत्पत्ति के बाद की अर्थात् विक्रम की सोलहवीं शती तक की गाथायें इसमें उपलब्ध होती हैं। इन बातों के सोचने से इतना नो निश्चय हो जाता है कि इस कृति से श्री हरिभद्र सूरिजी का कोई सम्बन्ध नहीं है । यद्यपि इसके पिछले भाग में दिए गए एक दो छोटे प्रकरणों में प्राचार्य हरिभद्र का सूचक "भवविरह" शब्द प्रयुक्त हुपा दृष्टिगोचर होता है, परन्तु ये प्रकरण भी हारिभद्रीय होने में शंका है। क्योंकि इन प्रकरणों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, तब इस संग्रह में इनका होना कैसे संभवित हो सकता है ? हरिभद्र सूरि ने अन्यत्र जो आलोचना विधान का निरूपण किया है, उससे उक्त प्रकरणों का मेल नहीं मिलता। अतः कहना चाहिए कि संग्राहक ने ही "भव विरह" शब्दों का प्रक्षेप करके सारे संग्रह-ग्रन्थ को "हारिभद्रीय" ठहराने की चेष्टा की है। अन्तिम पुष्पिका में "याकिनी महत्तराशिष्या मनोहरीया के पठनार्थ इस ग्रन्थ को प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने बनाया" यह पंक्ति जो लिखी है, इससे भी यही प्रमाणित होता है कि “संबोध-प्रकरण" हरिभद्र सूरि की कृति नहीं है। हमारे अनुमान से यह कृत्रिम कृति किसी खरतर गच्छीय विद्वान् की हो तो आश्चर्य नहीं ।
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